सामाजिक समस्याएँ और

सामाजिक परिवतेन

डा० राम आहूजा है एम० (०, पी-एच० डो० अध्यक्ष, समाजश्ास्त्र विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर

मीनाक्षी प्रकाशन

प्रस्तावना |

समाज में परिवर्तत से यह क्रावश्यक हो जाता है कि विभिन्न सामाजिक समस्याओं को एक नये दृष्टिकोण से देखा जाये यह हृष्टिकोण केवल समाज की सरचना संस्कृति को आधार बनाता है किन्तु नये उत्पन्न सामाजिक तत्त्वो को भी महत्त्व देता है। समस्याएँ प्रत्येक समाज में पायी जाती हैं परन्तु उनका च्घानिक अध्ययव उसी समाज के नियमों, मूल्यों एवं निर्धारित लक्ष्यों की प्रष्ठभूमि मे ही देखना पड़ता है। फिर समस्याओं के समाजश्ास्त्रीय अध्ययन हेतु विश्लेषण-विधि भी विपय कै,न्दर्भ में अपनानी होती है। प्रस्तुत पुस्तक में सामाजिक समस्याओं के अध्ययन में तीन पहलुओों को ध्यान से रखा गया है--बहु-कारक पहलु, विभिन्न समस्याओं के पारस्परिक सम्बन्ध का पहलू एवं प्रत्येक समस्या का समय झौर स्थान से सम्बन्ध का पहलू इन पहलुओं के आधार पर यह देखने का श्रयत्न किया गया है कि हमारे समाज में विभिन्न समस्याएँ किस प्रकार व्यक्तिगत एवं संस्थात्मक समायोजन की असफलता, सामाजिक संरचना में दोष, एकमत की कमी, संस्थाओं के एकीकरण के अभाव, सामाजिक नियन्त्रण के साधनों की अपर्याप्तता तथा सामाजिक नीतियों में संस्थात्मक विलम्बनाओं के कारण उत्पन्न होती हैं। सामाजिक समस्याओं का समाज- शास्त्रीय शोध उनके समाधान हेतु नही होता किन्तु व्यक्तियों और समूंहों के व्यवहार को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने के लिए होता है | यहाँ पर भी हमेंने कुछ समस्याओं के प्रति प्रचलित लोकप्रिय विश्वासों की विश्वसनीयता एवं कुछ विद्वानों की विचार- धाराओं के विश्लेषण द्वारा वास्तविकता और सिद्धान्त के अन्तर-सम्बन्ध परखने का प्रयास किया है प्रस्तुत संस्करण मे नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के दो अध्याय और बढ़ाये गये हैं तथा सभी अध्यायों को संझोधित कर दिया गया है। आश्या है पहले संस्करण की भाँति ही यह संस्करण भी लोकप्रिय होगा

-+राम प्राहुजा

विषय-सूची

प्रस्तावना रु) शामाजिय शाषस्याएँ और सामाजिय परिितंन- पत्र (८८, अपराध और अपराधी. * 4. भिक्षावृत्ति ०८80 ३४७०४. - (6 पिशर्पी अग़लोप 7 प. नपरोरुण्ण 8. औद्योगीकरण 9. गरामुदापिद विगरास योजनाएँ कौर पंचायतों राज (9) चंप प्णा (0) झतगंगगणद्वि एं परिवार नियोजन _2 सरदभं-प्रग्ष-गूषी

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सामाजिक समस्याएं ओर सामाजिक परिवतेन (50टए&, एर0०७%,65 30४० 50048, एप्त6४672)

प्रत्येक समाज का ढाँचा उस समाज मे रहने वालों की आकांक्षाओं की पूर्व का साघन होता है| परन्तु समय के परिवर्तन के साथ-साथ जब परम्परागत ढाँचा नहीं बदलता तो समाज में रहने वालों की आकांक्षाओं की पूर्ति में वह बजाय साधक होने के बाधक होने का कार्य करने लगता है। इसलिए आवश्यक है कि बदले हुए समाज में एक वदला हुआ ढाँचा अपनाकर आवश्यक समायोजन (80|7४॥7९॥/) लाया जाये। परन्तु जब परम्परा-प्राप्त मान्यताएँ समाप्त नही होती, पर जमी रहती हैं तो नयी आवश्यकताओं और प्रराने विचारों के ढाँचे में एक दरार पड़ जाती है जो एक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करती है जिसका समाज के सभी सदस्यों पर प्रत्रिकुल प्रभाव पड़ता है। ऐसी परिस्थिति ही सामाजिक समस्या की जन्मदाता है।

सामाजिक समस्या का श्र

राव और सेल्ज़निक के अनुसार सामाजिक समस्या एक मानवीय सम्बन्धों की समस्या है जो समाज के लिए एक गम्भीर खतरा उत्पन्न करती है अथवा जो व्यक्ति .की महत्त्वपूर्ण आकाक्षाओं की प्राप्ति में बाधाएँ पैदा करती हैं ।! पाल लैण्डिस के मतानुसार सामाजिक समस्याएँ व्यक्तियों की कल्याण सम्बन्धी अपूर्ण आकाक्षाएँ हैं ! मेरिल और एल्डिरिज का विचार है कि सामाजिक समस्याएँ तव उत्पन्न होती हैं जब गतिहीमता के कारण अधिक संख्या में लोग अपनी अपेक्षित सामाजिक भूमिकाओं में कार्य करने मे असमर्थ होते हैं |! यद्यपि सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समस्याएँ पायी जाती हैं, जेसे आशिक क्षेत्र में कृषि उत्पादन बढ़ाने हेतु सिंचाई और खाद की समस्या, राजनीतिक क्षेत्र मे केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों के सम्वन्धों की समस्या आदि, परन्तु इनको हम सामाजिक समस्या नहीं मानते केवल उन्हीं समस्याओं को सामाजिक समस्याएँ माना जाता है जिनसे

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2 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

समाज में सामंजस्य, सुहृदता वे मूल्यों को खतरा होता है। इसी प्रकार व्यक्तिगत समस्या और सामाजिक समस्या में भी अन्तर है व्यक्तिगत समस्या एक व्यक्ति के हितों से सम्बन्धित होती है जबकि सामाजिक समस्या पूरे समाज के हितों को प्रभावित करती है। अष्टाचार, साम्प्रदायिकता, बैकारी अपराध, नशाखोरी, सिक्नावृत्ति। अनुशासनहीनता आदि सामार्जिक समस्‍्याएँ हैं जवकि पुत्री के लिए दहेज के रुपये एकत्रित करना एके व्यक्ति की समस्या है। व्यक्तिगत समस्या के निवारण के लिए प्रमत्न की व्यक्तिगत होने चाहिए परन्तु सामाजिक समस्या के समाधान के लिए सामूहिक प्रयास की

बाल और फफे ने भी सामाजिक समस्या की परिभाषा में, इसी सामूहिक प्रयास पर बल दिया है। उनके अनुसार सामाजिक समस्या सामाजिक आदर्शों से विचलन है जिंसका निवारण सामूहिक प्रयास से ही सम्भव है इस परिभाषा में स्पप्ट रूप से दो तत्व मिलते हैं-- रे

(१) किसी ऐसी स्थिति का होना जिसकी अनुचित, नियम-विदृढ। व्यवस्था के प्रतिकूल सामाजिक आदर्श से विचलित मानता जाता है। यहाँ, अ्ामार्जिक आदशे' की परिभाषा मनमानी नहीं हैं परन्तु सामाजिक नीतिशास्त्र पर आधारित है। अपराध इसलिए सामाजिक समस्या है क्योकि वह सार्वजनिक कल्यार्थ हस्तक्षेप करता है तथा निर्धनता इस कारण सामाजिक समस्या है क्योकि वह, समाज के आधिक विकास में बाधाएँ उत्पन्न करती हैं।

(2) सामाजिक समस्या का सामूहिक प्रयास दास ही लिवारण हो सकता है अथवा उसका समाधान एक अकेला व्यक्ति नही कर संकता। _किसी व्यक्ति का हाथ द्वूट जाये तो डाबटर से उसे ठीक करवाना उसकी व्यक्तिगत समस्या होगी, परन्तु यदि हैंगें का सक्रामक रोग पूरे देश में फेल जाये तव उसे रोकते के लिए, व्यवस्थित प्रयास बी आवश्यकता होगी कभी-कभी एक ही समस्या कुछ परिस्थितियों में तो व्यक्तिगत समस्या होती है परन्तु अन्त परिस्थितियों में बही सामार्जिक समस्या मानी जाती है। एक इल्जीनियर जो बेरोजगारी के कीरग एक वतर्क का कार्य अपनाकर अपने परिवार के पोषण के लिए पर्याप्त धन नहीं जुटा पाता एक व्यक्तिगत समस्या का सामता करता है; परन्तु जब समाज में अधिकाँश इ्स्जी| बहुत समय तक बेरोजगार रहते हैं तव वे अपनी समस्या जनता सरकीर तक सामाजिक कार्यकर्ताओं शजनीतिज्ञों दारा पहुँचाते हैं जिसे सरकार इल्जीनियरों में बेकारी तथा अर्द बेकारी की समस्या के रूप में हल करने का भयात करती है। ईर्स प्रकार व्यक्तिगत समस्या का तब सामाजिक समस्या के रूप में, तिवाएग जया जाता है!

फुल्लर और मेयर्स के अनुमार सामाजिक समस्या एक वह वरिस्यिति है जिस

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अखााफ़, शथय/ | बाप सिएाविक लिए प्र. इम्तन कग्शलाए दावे 5नदोर्ग # €/व्क ?मष्णताएव झ्रग्ञ, 0:८.. छृहह्टौरू००4 (3752 0० 496, . हा

सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक पर्रिवर्तेन 5

अधिकांश व्यक्ति उत सामाजिक नियमों का विचलन मानते हैं जिन्हें वे प्रिय समभते हैं ।5 यदि इस परिभाषा का द्वाब्दिक अर्थ लिया जाये तो सामाजिक समस्या की परिभाषा मतमानी होगो क्योकि इसके अनुसार जब “बहुसंख्यक व्यक्ति! जिसको भी “नियम से विचलन मानेंगे वह 'उनके अनुसार सामाजिक समस्या होगी हार्टन और लेस्ले के जनुसार सामाजिक समस्या वह स्थिति है जो चहुत्त से लोगो को अनुचित रूप से प्रभावित करती है और जिसका निवारण सामूहिक क्रिया से ही हो सकता है ।* इस परिभाषा में चार मुख्य तत्त्व मिलते हैं-- 4. एक ऐसी स्थिति जो समाज में बहुसंस्यक लोगो को प्रभावित करती है। 2. प्रभाव ऐसा है जिसे अनुचित हानिकारक समझा जाता है 3. जिसका निवारण सम्भव माना जाता है अथवा इसमें सुधार की सम्भावता का विश्वास है 4, निवारण सामूहिक क्रिया से ही सम्भव है इन तत्तवों के आधार पर हार्टन और लेसले का विचार है कि सामाजिक समस्याएँ उत्पत्ति में सामाजिक हैं (क्योंकि वे समाज के बहुत सदस्यों को प्रभावित करती हैं), परिभाषा में सामाजिक हैं. (क्योकि समाज उन्हे अनुचित मानता है), तथा सुधार में सामाणिक हैं (क्योकि सामूहिक प्रयास पर वल दिया जाता है) ।” सामाजिक समस्याओं को सामूहिक प्रयत्नो के आधार पर व्यक्ति तभी हल कर पाते हैं जब उनके सोचने में ये चार तत्त्व होते हैं--- 7. एक चिश्वास कि जीवन की परिस्थिति को सुधारा जा सकता है, * 2. इन परिस्थितियों को सुधारने का निश्चय, 3, सुधार लाने समेन्नति के लिए वेज्ञानिक ज्ञान तथा तकनीकी निपुणता (४०४० ०हांध्बो अंत!) का प्रयोग, तथा 4. व्यक्तियों में एक गहन विश्वास कि उनकी बुद्धि और प्रयास के कारण उनकी समुन्नति की कोई सीमा नही है। चस्तुतः हम कह सकते हैं कि मनुष्यो अथवा समूहों के व्यवहार से उत्पन्न दशाएँ जो आधारभूत सामाजिक मूल्यों की चुनौती हैं चया जिस चुनौती के प्रति सचेत होकर समाण के वहुसंख्यक लोग अपेक्षित रचनात्मक कार्ये करने की आवश्यकता अनुभव करते है, सामाजिक समसस्‍्याएँ कही जायेंगी

358 8००४] फाठएंश्या 48 3 007गंणा छांती 06गरारए0 99 3 एशाओंतिशब06 प्रणफहर ठा एड्ाइ00$ 45 8 तल्शंबांता वित्त 50च्रा6 5०चश गा छेंयी पल काध्यंआ,? फ्णोक्, फाक्रोगघत ९0. गाते ३३०३, एालाडाएं 2., "॥6 पक्राप्राग प्राआठा३ 004 3059] * ए/एण९ा, 4कालांट्दव 5ग्लंगग?व्द्वं ३००७, 294, ४०. 6, 320. हे सकाता, एिण 9. बाव॑ ॥6€ञ86, उठाए ?2., 7#6 उत्द्रगग? मी 3न्ठता 4/०8/धशज, #990९9॥ (थापय४ (7०३ वरा८., [(, ४07, (2एप ९७६०॥), 4960, 4.

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4 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

सामूहिक प्रयत्न के अतिरिक्त जो समस्या के निवारण के " लिए व्यय आदि की आवश्यकता होती है वह भी सावंजनिक धन से किया जाता है श्रीमती बारबरा बूटन मे इसी सा्वेजनिक घन के व्यय के आधार पर ही सामाजिक समस्या को परिभाषित भी किया है। उनके अनुसार सामाजिक समसस्‍्याएँ वे क्रियाएँ हैं जिनके निरोध के लिए सावंजनिक धन व्यय किया जाता है अथवा जिन (क्रियाओ) के करने वालों को दण्ड देने का व्यय भी सार्वजनिक घन से ही किया जाता है ॥* परन्तु बटन की परिभाषा बहुत सीमित है और इसको मानने का अथ यह होगा कि सामाजिक समस्याओं में केवल “क्रियाओं को ही सम्मिलित किया जाये 'परिम्थितियो' को नही; और क्रियाओं मे भी केवल उन क्रियाओं को जो एक विशिष्ट समय में राज्य का ध्यान आकपित करती हैं। इस आधार पर निर्धतता तथा औद्योगिक संघर्ष जैसी परिस्थितियों को सामाजिक समस्याओं के क्षेत्र से अलग करना होगा। यही कारण है कि बटन की परिभाषा को अधिक मान्यता नहीं भ्रदात की जाती

इस प्रकार सामाजिक समस्याओं के प्रति. जो फुल्लर, मेयसं, बटन आदि द्वारा कुछ गलत धारणाएँ (/8॥8046७) श्रस्तुत की गयी हैं, जिनका कोई आधार नही है , हमे समाप्त करनी होंगी, जैसे यह कि, सामाजिक समस्याएँ स्वाभाविक और अवश्यम्भावी हैं, या सामाजिक समस्याएँ 'खराब' लोगों द्वारा.उत्पन्न की जाती हैं, या सभी लोग सामाजिक समस्याओं का निवारण चाहते हैं, या सामाजिक समस्याओं का अपने आप समाधान हो जायेगा, या सामाजिक समस्याएँ बिता सस्थात्मक परिवतनों के हल हो जायेंगी, आदि ।* फिर, हमें यह्‌ भी स्मरण रखना होगा कि किसी समस्या का समाधान तुरन्त सम्भव नही है। फुल्लर के अनुसार सामाजिक समस्याओं को परिभाषित किये जाने और उनके निवारण के बीच तीन अवस्थाओ से गुजरना पड़ता है"...

() सचेतना (&७थ7०००55)--इससे पहले कि किसी परिस्थिति को सामाजिक समस्या माना जाये, लोगों में इस हृढ़ विश्वास का होना आवश्यक है कि वह परिस्थिति अनुचित है और उसके समाधान के लिए कुछ किया जाना चाहिए

(2) नीति-निर्धारण (?०॥०७ 0०शाांतभोणा)--सामाजिक समस्‍या के अस्तित्व (४०7००) के माने जाने पर उसके निवारण के लिए कुछ सुझाव दिये जाते हैं। इनमे से किसी एक सुमाव को मानकर उसको सफलता के लिए फिर साधन ढूँढ़ने के प्रयत्व किये जाते हैं |

(3) छुघार ((१८(०7४)--साघन दूँढने के पश्चात्‌ उसको कार्यान्वित्त करने का प्रइन आता है

सामाजिक समस्याभ्रों के कारण राव और सेल्डनिक के अनुसार सामाजिक समस्याएँ तभी उत्पन्न होती हैं छु.ा5ा३ ०0007, उन्‍ल॑ग उलट ब्यवं उत्सव >द# ०822.

# एृ१0005 डघवे [.23॥6, ०7. २४... 6-2. एणाल, शिक्केडत्ठ ए. 854 8१7०, रागाजत्व पे... ०5. ८(/. 320-28.

सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवतंन 5

जब--.() एक संगठित समाज के लोगों के सम्बन्धों को व्यवस्थित करने की योग्यता समाप्व होती प्रतीत होती है, (7) समाज की विशिन्न संस्थाएँ विचलित होने लगती हैं, (॥) समाज के कानूनों का उल्लंघन किया जाता है, (४) समाज के मूल्यों का एक पीढ़ी से दूसरी को संचारण (7575&0॥) बन्द हो जाता है, तथा (५) आकांक्षाओं का ढाँचा (टिवया०७४०7८ ०००८४१०7७) सड़खड़ाने लगता है

पाल लैण्डिस ने सामाजिक समस्याओ के निम्न कारण बताये हैं-- () व्यक्तितत समायोजन की असफलता (शाप वी कथाइणाथ् 80]प7४767(), (४) सामाजिक संरचना में दोष (त०(६९७ गा 5००ंगों आपंलंपा८७5), (7) संस्थात्मक समायोजन की असफलता (श्ीफ्यल वं। गंगधाप्रांणिव बतुंप्रशशाथा), तथा (५) सामाजिक नीतियों मे संस्थात्मक अगतिशीलता (#रहमाएीणाओं वह वी $०्णंथ ए0॥09)

व्यक्तिगत समायोजन की सफलता का कारण गिलिन और गिलिन (छाए 0 0) ने अपूर्ण समाजीकरण बताया है ।*

राव और सेल्जनिक तथा पाल लैण्डिस ने सामाजिक समस्याओं को अलग अलग कर उनका विश्लेषण किया है जबकि हरमन (प्रट्या॥0)/ और वाल्श (प०५४)४ आदि ने इस प्रकार के अध्ययत विधि की आलोचना की है क्योकि अब यह माना जाता है कि सभो समस्याओं का पारस्परिक सम्बन्ध है

सामाजिक समस्या भौर सैद्धान्तिक श्रवधारणा

विभिन्न सामाजिक समस्याओं में पारस्परिक सम्बन्ध पाये जाने की मान्यता के अतिरिक्त अब यह भी विश्वास किया जाता है कि सभी समस्याओं का एक सामान्य आधार है। इस सामान्य आधार की चार अवधारणाएँ--सामाजिक विघटन, सांस्कृतिक विलम्बना, मुल्य संघर्ष और वैयक्तिक विचलन--मिलती हैं। हम इन चारो सँद्धान्तिक अवधारणाओं का अलभ-अलग विश्लेषण करेंगे।

सामाजिक विघटन का सिद्धान्त (7॥6079 $0लं॥! 0080784754॥07)

सामाजिक विघटन के कारण सामाजिक समस्याओं की उत्पत्ति को मानने वाले विद्वानों का यह विश्वास है कि अतीत काल में कोई समस्या थी ही नहीं समाज में एक प्रकार की स्थिर साम्यावस्था थी जिसमे क्वियाओं (9720०0०९5) और मूल्यों में समन्वय था | फिर कुछ ऐसा परिवर्तन हुआ जिसने इस समन्वय की नष्ट

3) इर्बद्ठत 374 $वाट्वाह॥, ०5. ८2/., 6.

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6 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

कर दिया इस परिवर्तन के कारण नयी क्वियाएँ और नयी स्थिति पंदा हुई जिसमें या तो पुरानी क्रियाएँ समाप्त हो गयी अथवा उन्हें अनुचित अनुपयोगी समझी जामे लगा इस उत्पन्न अव्यवस्थित स्थिति में यद्यपि पुरामे नियम अस्वीकार किये जाने लगे उनकी उपेक्षा होने लगी परन्तु नये नियम अभी स्वीकार नहीं किये गये थे परिवर्तन ने इस प्रकार पुराने व्यावहारिक ढाँचे फो विधटित कर दिया अथवा ऐसी स्थिति पैदा की जिसमें व्यक्ति अपने ही समाज के नियमों से नियन्भ्रित मही होते थे अथवा उसके भूल्यों और मैतिकता के अनुसार कार्य नहीं करते थे। इसी सामाजिक विघटन की स्थिति के कारण ही सामाजिक समस्‍्याएँ उत्पन्न हुई रोलाण्ड वारेन ने सामाजिक विघटन को एक वह स्थिति बताया है जिसमें ऐकमत्य की कमी, संस्थाओं के एकीकरण का अभाव और सामाजिक नियन्त्रण के साधनों की अपर्याप्तता पायी जाती है !९ एक मत के अभाव में समूह के लक्ष्यों के प्रति मतभेद और भावनात्मक धारणाओं में विरोध मिलता है। ऐसी स्थिति में समाज की विभिन्न संस्थाएँ एक-दूसरे के विपरीत कार्य करती हैं ओर इससे जो अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न होती है उसके कारण व्यक्ति समाज में अपने नियमपूर्वक कार्य नही कर पाते विधटित सामाजिक समूह का एक उदाहरण है आकस्मिक भय और घबराहट के कारण सेना का भागना ऐसी स्थिति में सेना एक'कुशल लड़ने वाले समूह से भीड़ वन जाती है। अतः हम कह सकते हैं कि सामाजिक विधटन के भुख्य लक्षण हैं: पद और कार्य की अनिश्चितता, नियन्त्रण के साधनों की शक्ति में कमी, तथा ऐकमत्य का अभाव फैरिस ने सामाजिक विधटन के लक्षण इस प्रकार दिये हैं!” : पवित्र तत्त्वों का ह्वास, स्वार्थों और रुचियों में वैयक्तिकता (॥7ताशंवए- ॥), वैयक्तिक स्वतन्त्रता और व्यक्तिगत अधिकारों पर बल, भौतिक सुख सम्बन्धी (76००४$70) व्यवहार, एक-दूसरे पर अविश्वास, तथा अशान्ति उत्पन्न करने वाले तत्त्व रावर्ट फैरिस जंसे कुछ लेखको का विचार है कि सामाजिक विघटत का सिद्धान्त उस परिस्थिति को स्पष्ट नही करता जिसमे सामाजिक सभस्या उत्पन्न होती है ।8४ इस कारण ये लेखक सामाजिक विधटन को सामाजिक समस्याओं का मुख्य कारण नही मानते फेरिंस सामाजिक विधटन! की धारणा को सामाजिक समस्या का प्रतिस्थापक (5७050(ए७९) मानता है। उसका कहना है कि सामाजिक विघटन को अध्ययनकर्त्ता के स्वयं के मुल्यों के भ्रमाव के बिना वस्तुनिष्ठता (०४ं००ाशा।) से मालूम किया जा सकता है जवकि सामाजिक समस्या में स्पप्ट रूप से मूल्य समावेश (श्थाए८ ००४०४४०४) पाया जाता है जिस कारण वह एक

3५ ५# ८णाप्याप00 गार0जाड 4९९ टजाब्टाएए5, 807 त(हहथाणा 08॥00- [075 8707 उ0ड्तएच6 ॥8८8083 छा इ0लाबोी जाए, 06379, ॥.. एशबाउटा), 5009 ॥05078भा5शराा 3009 धाट जालाशबा05४9 0एजफाडओ ए०९३१ #4#न्‍्कॉट्व ड०2०- 4०८4४ अ7९ा2४, ४०१. 44, 949,

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सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन प्र

वस्तुनिष्ठ घारणा नही है। परन्तु वाल्स और फर्फे ने इस विचार को सही नहीं साना है। उनका कहता है कि सामाजिक विघटन की घारणः में भी पक्षएतत मिलता है।” जब समाजश्ञास्त्री सामाजिक विघटन के सम्भव लक्षण बताते हैं तब आवश्यक है कि उनकी यह घारणा पूरी तरह वस्तुनिय्ठ बही हो सकती | उदाहरण- तया हाब्स* द्वारा सामाजिक विधघदन के कारणों और उसके समाधान के लिए आर्थिक कारक पर अधिक बल दिया गया है जो स्पष्ट रूप से लेसक का पद्षपात सूचित करता है

इस आधार पर हम कह सकते है कि सामाजिक समस्याओं के उत्पत्ति सम्बन्धी सामाजिक विघटन का सिद्धान्त समाज की उन सभी स्थितियों को स्पष्ट नही करता जिनसे सामाजिक समस्याएं उत्पन्न होती है। हिटलर की जमंनी और स्‍्टालिन का रूस समाज पूर्णतः निविष्नता से कार्य कर रहे थे। उनमें सामाजिक विघटन किसी माणा में भी नही था। परन्तु फिर भी दोनों समाजों में सामाजिक आदर्शों से विंचलन मिलता था जिसके लिए सामूहिक क्रिया की आवश्यकता थी। दूसरे शब्दों में दोनो समुदायों में सामाजिक समस्याएँ मिलती थीं

लेकिन इसका यह अर्थ भी नही कि सामाजिक विघटन और सामाजिक समस्या का पारस्परिक सम्बन्ध ही नही है! यद्यपि सामाजिक विघटन सामाजिक समस्या को ध्रू्ण रूप से नहीं तो कुछ अंश में अवश्य समभाता है। वाल्स ने भी इस तथ्य पर बल दिया है ।*

हार्टन और लेस्ले के अनुसार सामाजिक समस्याओं भे सामाजिक विघटन के अध्ययन विधि के भ्रयोग में हम निम्न कुछ प्रश्न पुछते है :१* परम्परागत नियम और क्ियाएँ क्‍या थी ? किस प्रकार के सामाजिक परिवतेनों ने उन्हें व्यर्थ निर्थक बना दिया ? कौनसे पुराने नियम समाप्त हो गए है ? क्या समाज में परिवर्तन अब भी हो रहा है ? यदि हाँ, तो किस गति से और किय दिखा में ? असान्तुष्ट समूह कौन-कौन से हैं तथा उन समूहों ने समस्याओं के समाथान के लिए कौनरो उपाय बताये हैं ? जो उन्होंने निवारण के विभिन्न उपाय बताये हैं उनमें से कौनरो सामाजिक परिवतेन के अनुकूल हैं ? भविष्य में किन नियमों को मान्यता अदान कौ जाएगी, इत्यादि

सांस्कृतिक विलम्बना का सिद्धान्त (77609 टप/एर् 7.98) यद्यपि परिवर्तन हर समाज में पाया जादा है परन्तु सभ्यता यय हर पहलू

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8 सामाजिक समस्याएँ और सासाजिक परिवर्तन

एक ही मात्रा में तथा एक ही गति से नही वदलता | सांस्क्रेतिक विशम्वना के सिद्धान्त को मानने वालों का यह विश्वास है कि औद्योगिक प्रगति इतनी तीत्र गति से होती है कि उसमें हम अपना समायोजन नही कर पाते दूसरे घब्दो मे अभौतिक संस्कृति की प्रगति भौतिक संस्कृति की प्रगति से पीछे रह णाती है। संस्कृति के दोनों पक्षो में से एक के अधिक विकसित हो जाने और दूसरे की वृद्धि उसी अनुपात में हो सकने की स्थिति को ऑगवर्न ने “सांस्कृतिक विलम्बना” माना है। यही सास्कृतिक विलम्वता सामाजिक समस्याएँ भी उत्पन्न करती है। उदाहरण के लिए भारत में औद्योगीकरण का विकास तो उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से शुरू हो गया और कारखानो में दुघंटनाओ की संख्या बढती गयी परन्तु श्रमिकों के लिए श्रमिक क्षतिपूति अधिनियम (जगांताकां३ 0०एफथा5४४०० #०) 923 में ही पास किया गया। मालिकों और श्रमिकों के सम्वन्धों को नियत्रित करने एवं श्रमिकों के शोषण को रोकने मालिको और मजदूरों के भग्डों के निपटाने सम्बन्धित कानून 946 में ही पास किया गया तथा श्रमिक संगठनों का निर्माण विकास 930 के बाद ही हुआ इस प्रकार बीच का काल सांस्कृतिक विलम्बना का काल था। इसी तरह देश में बेरोजगारी इतनी पायी जाती है परन्तु अभी तक बेरोजगारी बीमा जैसी सुरक्षा की थोजना आरम्भ नही की गयी है। इस स्थिति और आवश्यकता के मध्य का तनाव 'सास्कृतिक विलम्बना' ही कहलायेगा। सामाजिक सुरक्षा की योजना के अभाव मे वेरोजगार व्यक्ति यदि सामाजिक नियमों से विचलित होगे तो अपराध की समस्या स्वाभाविक ही है। इससे पता लगता है कि संस्थात्मकः अभि- योजना के अभाव मे अथवा सांस्कृतिक विलम्बना से किस प्रकार सामाजिक समस्‍्याएँ उत्न्न होती हैं। आँगवर्न ने इस सांस्कृतिक विलम्बना के कारणों भें व्यक्तियों की रूढ़िवादिता, नए विचारों के प्रति भय, अतीत के प्रति निष्ठा, निहित स्वार्थ तथा नवीन विचारों की परीक्षा मे कठिनाई बताये हैं ।!* सांस्कृतिक विलम्बना का सिद्धान्त कुछ सामाजिक समस्याओं को तो स्पष्ट करता है पर सभी को नही | किर्तु वास्तव में इस सिद्धान्त को मानने वाले भी यह दावा नही करते कि 'सास्कृतिक विलम्बना' सभी सामाजिक समस्याओं को स्पष्ट करती है | स्थायी समाजों में भी अपराध और निर्धनता जेसी समस्याएँ पायी जाती हैं

मूल्पों में संघर्ष फा सिद्धान्त (४००४ 0०070 796०५)

सामाजिक मूल्य हमारे जीवन के लिए इस कारण महत्त्वपूर्ण हैं बयौकि यही मूल्य यह निश्चित करते हैं कि समाज के लिए क्या महत्त्वपूर्ण है, किस वस्तु को प्राप्त करने का भ्रयत्त करना चाहिए तथा किनसे बचना चाहिए दूसरे शब्दी में समाज के मूल्य ही उसके अधिमान (छार्शटा८४०८५) और जम्वीकृत आचार (70[९०४०४॥)

3३ 0800७79 ४. ए. 504 रगाणी, छह. ए,, उत्लग॑गएऊ, पिण्णडगा00 गाए + छे०श67 (३3४व ९३४०७), 958, 703-2.

सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन "9

होते हैं। हर समाज में बहुत से मूल्य समान रूप से महत्त्वपूर्ण नहीं होते कृछ मुल्य दूसरों की अपेक्षा कम महत्त्वपूर्ण होते हैं और कुछ समाज के प्रत्येक कार्य में आधार- भूत होते हैं। फिर, अलग-अलग समूहों के मूल्य अलग-अलग होने के कारण मूल्य- मतभेद मिलता है। इन्ही मूल्यों में मतभेद अथवा मूल्यों के सामान्य अर्थों में परिवर्तन के कारण सामाजिक समसस्‍्याएँ उत्पन्न होती हैं। उदाहरण के लिए, रूढ़िवादी व्यापारी व्यक्तिगत प्रीत्साहन और लाभ-उद्देश्य पर आधारित पुराने पूंजीवाद के पक्ष मे होते हैं जवकि उदारवादी व्यापारी व्यापार परः सरकार का कठोर नियस्त्रण चाहते है अथवा वे समाजवाद के पक्ष में होते है। दोनों समूहों मे तीतियो के अन्तर के अतिरिक्त मूल्यों में भी अधिक अन्तर मिलता है। रुढ़िवादी इस कारण पूंजीवाद को व्यक्तियों के लिए अच्छा मानते हैं क्योंकि उनके अनुसार इस ढाँचे से अभिलापा, अल्यव्ययिता तथा कठोर परिश्रम आदि जैसे मूल्यों को प्रोत्साहन मिलता है। दूसरी ओर, उदारवादी इस ढाँचे (पूंजीवाद) में एक भौसत व्यक्ति का शोषण और कुछ विश्विष्ट व्यक्तियों का लाभ पाते हैं। मूल्यों के इस तरह के संघ से सामाजिक समस्थाएँ उत्तन्न हीती हैं। फ़ुल्चर का भी कहना है कि हमारे आधिक स्वार्थ के कारण अपराध बढ़ते है, पूँजीवादियों के मुताफेखोरी के कारण श्रमिकों में बेरोजगारी उत्पन्न हीती है तथा एक-विवाह की प्रथा पर वजल देने के कारण अविवाहित माताएँ बच्चों की उपेक्षा करती हैं /४ उगूवर और हारपर ने परिवार सम्बन्धी सामाजिक समस्याओं में प्रौढ़ और युवा पीढी के मूल्यों के सघर्प का उल्लेस किया है। प्रौढ़ पीढी के मूल्य विवाह की पवित्रता, रूढ़ियो की आस्था, परम्परागुसार कर्ता के सर्वाधिकार सम्पन्न व्यक्ति होने, आदि में विश्वास करते हैं, जबकि युवा पीढ़ी के मूल्य अधिनायकवाद, व्यक्तिगत योग्यता, समान अधिकार आदि पर आधारित होते हैं वाल्लर ने सामाजिक समस्याओं की उत्पत्ति संगठन सम्बन्धी और मानवतावादी लोकाचार मे संधपं के आधार पर वतायी है ।* संगठन सम्बन्धी मूल्यों में बह व्यक्तिवाद, वैयक्तिक सम्पत्ति आदि लोकाधार सम्मिलित करता है और मानवता- बादी लोकाचार में वह संतार को अच्छा बनाने की इच्छा अथवा लोगों के कप्टो का समाधान करने जैसे मूल्य सम्मिलित करता है फुल्लर, कयूबर और वाल्लर के विश्लेषण मे कुछ दोष मिलते हैँ। फुल्लर का यह विश्वास कि हमारे वर्तमान लोकाचार घन पर अधिक बल देते हैं और यह धारणा चोरी के अपराध की प्तमस्या को प्रौत्साहन देती है, सही नही है क्योंकि पूरे अपराध की समस्या को केवल मूल्यों के संघ के आधार पर नहीं समभाया जा सकता इसी प्रकार क्यूबर और हारपर की यह मान्यता कि वर्तमान परिवार की

झाप्रोक, फाटागात (., ब्रा शच्छंता गे प्रध्तांगढ 8००॑ंगर काक्ाटा$', अींफाशार्या 7गवकावा 2/5०2०7०९०, (44), 4937, 49,

रू एफ्था, उगाए के, बात परबाफुल्ल, रि०ट६ &... उ77शट्यफ 7 कै०लेश 72/7९३ ०० ८०#पिट, सठ॥, २, ४०7/८, 948, 305-06.

2 ज्यादा ज्राधद्वाव, १0०2वां शरत्णल्ाड बचव धढ 30763 #लदवदत हवा >?शपंट०, 936 (4), 924,

१0 सामाजिक समसस्‍्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

कुछ समस्याएँ किसी किसी मूल्य के संघपे के कारण होती हैं सही हैं परन्तु यह मानता कि सभी पारिवारिक समस्याएँ केवल मूल्यों के संघर्ष के आधार पर ही स्पष्ट की जा सकती है गलत होगा क्योकि ऐसे समुदायों मे भी जहाँ मूल्यों में पुर्ण सहमति मिलती है पति-पत्नी अथवा माता-पिता तथा सन्तान के सम्बन्ध पूर्ण रूप से समस्यामुक्त नही मिलते हैं।

इस तरह यह कहा जा सकता है कि मूल्य संघ दो तरह से समाज में सामाजिक समस्याएं पैदा करते हैं--पहला, वे वाँछनीय सामाजिक परिस्थितियों के विरोधी परिभाषाएँ देने से समस्याएँ उत्पन्न करते है--और दूसरा, वे नैतिक अव्यव- स्थितता (7० ००॥०श४०॥) को उत्साहित करते है जिससे वेयक्तिक विचलन को प्रोत्साहन मिलता है।

इस अध्ययन विधि के प्रयोग में हार्टन और लेस्ले के अनुसार कुछ प्रश्न इस प्रकार पूछे जाते हैं?--कौत्-से मूल्यों में संघर्ष पाया जाता है ? मूल्य संघर्प कितना गहरा है ? समस्या के समाधान के लिए दिया हुआ सुझाव कौनसे मूल्यों को समाप्त करना चाहता है, इत्यादि

चैयक्तिक विचलन का सिद्धान्त (?शइ०णाश 06एंथाणा 8फछा/०००7)

सामाजिक विघटन के सिद्धान्त में हम यह देखते हैं कि कौन-से नियम, मूल्य क्रियाएँ हूठे है, किस तरह के परिवर्तन के कारण हूटे हैं, और कौन-कौन-से नये नियम उत्तन्न हुए हैं दूसरी ओर, वेयक्तिक विचलन के सिद्धान्त (9८5079] 06ए9- धं०० ०997020) में हम उन लोगों की प्रेरणा और व्यवहार का अध्ययन करते हैं जो समस्या को उत्पन्न करने मे प्रभावशाली हैं, जो उसकी प्रकृति को परिभाषित करते है, जो उसका विरोध करते हैं अथवा जो उसके समाधान के सुझाव देते हैं में लोग विचलित व्यक्ति हैं जिनका विचलित व्यवहार सामाजिक समरयाओं की उत्त्ति से बहुत सम्बन्धित है इस प्रकार हम वेयक्तिक विचलन की अध्ययन-विधि द्वारा मह्‌ सालूम करने का प्रयत्न करते हैँ कि वंयक्तिक विचलन कंसे विकसित होता है, तथा सामाजिक समस्याओं में किस प्रकार का वँयक्तिक विचलन पाया जाता है।

वैयक्तिक विचलन के दो मुख्य कारण पाये जाते हैं--(क) समाज द्वारा सान्यताप्राप्त नियमों के पालन की असमर्थता; (ख) समाज द्वारा मान्यताप्राप्त नियमों के पालन में असफलता इससे ज्ञात होता है कि वेयक्तिक विचलन ऐसे व्यक्तियों में पाया जाता है जिनका सही समाजीकरण नहीं हुआ है अथवा विचलित व्यवहार समाजीकरण प्रक्रिया के असफलता के कारण पेदा होता है। जहाँ तक वेयक्तिक विचलन के प्रकारों का प्रइव है इसके दो प्रकार मिलते हैं--() मान्यता- प्राप्त नियमों से विचलन, (2) स्वयं उत्पन्न किए हुए नियमों वाले विचलित उप- संस्कृतियों का पाया जाना।

# झुतााए5 १8५ [-ाट, ०. ८0-, 38-

सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन 8

सामाजिक समसस्‍्याओ में वैयक्तिक विचलन' के अध्ययन-विधि के प्रयोग में हम हर्टन और लेस्ले के अनुसार निम्न प्रइन पूछते हैं“---किस प्रकार के व्यक्ति और समूह नियमों से विचलित होते हैं ? क्या विचलित व्यक्ति स्वयं समाज के लिए समस्या हैं अथवा वे समस्या उत्पन्न करते हैं ? यदि समस्या उत्पन्न करते है तो कैसे ? क्या विचलित व्यक्ति मौलिक रूप से कुसमायोजित (773)90]7५०४) व्यक्ति हैं? कौन-सी आवश्यकताएँ उनको मान्यता-प्राप्त व्यवहार से विचलन की प्रेरणा देती हैं ? कौत-सी विचलित उप-संस्क्ृतियाँ पायी जाती हैं तथा इन समूहों द्वारा कौन-से तियम माने जाते है ? नियमों से विचलन करने वाले व्यक्तियों के पुन:ःसमाजीकरण के लिए कौन-कौन से सुझाव उपलब्ध हैं ?

उपर्युक्त चार सिद्धान्त कुछ सामाजिक समस्याओं का आपस में अन्तर- सम्बन्ध सिद्ध करते है परन्तु ये समी समस्याओं का हर प्रकार का पारस्परिक सम्बन्ध स्पष्ट नही करते वाल्स के अनुसार इन सिद्धान्तों का प्रमुख दोप समस्या को बहुत सरल बनाने का प्रयत्व है ।/” हर सिद्धान्त सभी सामाजिक समस्याओं की उत्पत्ति में एक सरल कारक पर बल देता है परन्तु स्थिति इतनी सरल नहीं है| चर्तमान समाजशास्त्रीय अध्ययन यह स्पष्ट रूप से बताते है कि सामाजिक समस्या कया निवारण इतना सरल नही हो सकता यद्यपि चारों सिद्धान्तों की यह मान्यता सही है कि सामाजिक समस्याएं समाज से ही उत्पन्न होती हैं भौर इस कारण उनमें कोई सामान्य कारक होगा परन्तु वह 'कोई कारण' क्या है यह स्पष्ट नही कर पाये हैं। हम यह मानते हैं कि विभिन्न सामाजिक समस्याओं का आपस में सम्बन्ध अवश्य होता है) यही पारस्परिक सम्बन्ध उनके (सामाजिक समस्याओं) कारणों निवारण के विश्तेषण का आधार होना चाहिए।

सामाजिक समस्याओ्रों का निवारण

सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए निम्नलिखित तीन पहलुओं (9097040॥65$) को ध्यान में रपना चाहिए---

(।) बहु-कारकबादी हप्टिकोश (१४७४छा०-४०० 8.9700४०॥)--इस दृष्टिकोण के आधार पर हमें यह मानना पड़ता है कि कोई समस्या किसी एक कारण से नही परन्तु अनेक कारणों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती है। उदाहरणतः यह मानना कि भारत में क्योकि 80 प्रतिशत अपराध चोरी से सम्बन्धित होते हैं इसलिए निर्धनता ही अपराध का मुख्य कारण है, सही नहीं होगा यदि केवल निर्धनता ही अपदाध का कारण हो तो सभी तिर्घन व्यक्ति अपराधी होते अथया धनी व्यक्तियों में हमें अपराध बिल्कुल नहीं मिलता परन्तु ऐसा नहीं है। इस कारण अपराध का कारण केवल निर्धतता भानकर अनेक सामाजिक, मतोवैज्ञानिश और जैविकीय

3 /674., 35. 8 १७४४)५, ०5. ८४/., 8.

42 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

आदि कारक बताये जाते हैं। इस दृष्टिकोण को बहुकारकबादी दृष्टिकोण कहा गया है। (2) पारस्परिक सम्बद्धता ([007०3(०१॥०६३)--इसका भर्य यह है कि एक सामाजिक समस्या अन्य बहुत समस्याओं से सम्बन्धित होती हैँ जिस कारण हमे एक समस्या को सुलभाने के लिए अन्य रामस्थाओं को भी सुलभाने के प्रयल करने पड़ते हैं। उदाहरण के लिए, अस्पृश्यता समस्या के रामाघान के लिए केवल हमे अछूत लोगों के आधिक सामाजिक उत्थान का प्रयत्न करना होगा पर साधारण लोगों के उनके प्रति पूर्व निश्वित घारणाओं ($९:८०॥७८७) को भी समाप्त करना होगा जो थिक्षा आदि द्वारा ही सम्भव है। किर पास किये गये कानून के कठोर परिपालन से लोगो में मय पैदा करना होगा कि अस्पृश्यता के मनाने से उन्हें कठोर दण्ड मिल सकता है। इसके अतिरिक्त जातीय ढाँचे को भी समाप्त करने का प्रयत्त करना होगा तथा परम्परागत व्यवसाय में जो अस्पृष्य लोग साधन अपनाते हैं उनमें आधुनिकीकरण लाना होगा जिससे लोग उनको गन्‍्दा, मूर्ख, बुद्धिहीन, अन्घ- विश्वासी आदि कहे दूसरे छब्दों मे अस्पृश्यता के उपचार के लिए हमे निर्धनता, अज्ञानता, जाति-प्रथा आदि समस्याओं को समाप्त करने का प्रयास करना होगा। फिर कुछ सामाजिक समस्याएँ सामाजिक नियन्त्रण (कानून) से भी उत्पन्न हो सकती हैं बयोकि साधारणतया लाभकारी कानूनों के साथ कई बार अवोदित परिणाम भी प्रकट होते हैं। मशानिरोध अधिनियम के कारण अवैध रूप से दराव बेचना तथा शराब का अवाछित व्यापार जैसे परिणाम उत्पन्न हुए हैं। इसी तरह वेश्यावृत्ति अधिनियम के कारण अवेध यौत-सम्वन्ध अथवा अवैध वेश्यागृह आदि जैसी समस्याएँ भी उत्पन्न हो गयी हैं। इस आधार पर विभिन्न सामाजिक समस्याओ के पारस्परिक सम्बन्धों का विचार ही सामाजिक समस्याओं के उपचार का आधार हो सकता है। (3) सापेक्षिकता (२९८[४४९५)--इसके अनुसार प्रत्येक सामाजिक समस्या का समय और स्थान से अभिन्न सम्बन्ध होता है। कोई सामाजिक स्थिति हानिकर और गम्भीर है अथवा नही, यह अमुक समाज के निर्णय पर आशित है जिस समस्या को एक समाज में गम्भीर माना जाता है आवश्यक नहीं कि अन्य समाजो में वहू समस्या गम्भीर मानी जाती हो। उदाहरणत' जनसस्याधिक्य हमारे लिए अति गम्भीर समस्या है परन्तु शायद चीन के लिए इतनी नहीं है। इसी प्रकार प्रजातीय संघर्ष की समस्या जितनी इस समय अमरीका अफ्रीका में मिश्नती है उतती अन्य देशों में नहीं मिलती फिर, जो समस्या आज समस्या मानी जाती है आवश्यक नहीं कि सदा उसको समस्या ही समझ लिया जाये सामाजिक समस्या का समाधान केवल उपर्युक्त पहलुओ के आधार पर सम्भव हो सकता है और इन्हीं पहलुओ के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि कभी यह सम्भव नही है कि किसी समाज मे अथवा किसी विशद्येप समय में कोई समस्या पाई ही जाये समस्याएँ हर समाज मे हर काल मे मिलती हैं, केवल उनका रूप उनकी गम्भीरता अलग-अलग रूपो में मिलती है समस्या के निराकरण के लिए

सामाजिक स्मेस्याएँ और सामाजिक परिवतेव व3

जब तक समस्त समूह रुचि लें तब तक उसको समाप्त करना असम्भव है और समस्त समूहों मे अभिरुचि उत्पन्न करना आसान नहीं है। जनता के एक भाग की रूचि वेकारी समाप्त करने में होगी तो दूसरे की निर्धनता खत्म करने मे और तीसरे की निरक्षरता (शपलाश३०४) दुर करने मे सभी लोगो में आवश्यक धारणाएँ उत्पन्न करना बहुत आवश्यक है। गिलिन मे इत आवश्यक सामाजिक धारगाओं को इस प्रकार परिभाषित किया है--“जब एक समाज अथवा समूह किसी (अहितकर) स्थिति का सामना करता हैं तव उसके (समाधान के) लिए ऐसी सामूहिक धारणाएँ उत्पन्न करना जो किन्‍्ही विश्वासों भाववाओं पर आधारित हो ।२९

इन सामाजिक घारणाओ की उत्तत्ति मे नेता भुख्य कार्य कर सकते हैं | जिन विभिन्न तरीकों से ये आवश्यक घारणाएँ उत्पन्न कर सकते है वे हैं--(क) अपने उदाहरण हारा अपने अनुसरण करने वालो को प्रेरणा प्रदान करना, जैसे गाधी जी ने अस्पृश्यता को समाप्त करने में अपना उदाहरण जनसाधारण के सामने रखा (ख) व्यक्तियों को समस्या के निवारण के लिए नये स्वस्थ विचार देना (ग) सफलता भ्राप्ति से पहले सफलता का भ्रम उत्पन्न करना

जानसन के अनुसार सामाजिक समस्याओं का समाधान तीच कारकों के कारण कठिन होता है--

(4) विद्यमान सामाजिक संरचना को शक्तिशाली भावनाओं (४८०४॥7९7॥5) तथा निहित स्वार्थों (९९४६० [श८४($) का समर्थन होता है। वालर का कहना है कि कभी-कभी यह निहित स्वार्थ उन्ही लोगों में पाये जाते हैं जो विद्यमात' परिस्थिति को, जिसे हम सामाजिक समस्या मानते हैं, शोचनीय हानिकर बताते हैं।/ इसका. उदाहरण मिडेल* ने अमरीका मे प्रजातीय विभेद का दिया है। उसका कहना है कि वे ही लोग जो प्रजातीय विभेद के मनन -मे शर्म अपसान अनुभव करते हैं उसे सस्ते श्रम, कार्य के एकाधिकार तथा ऊँची सामाजिक प्रतिष्ठा मिलने के लाभ के कारण समाप्त करने के लिए अनिच्छुक पाये जाते है। भारत में अस्पृश्यता, घूसखोरी भ्रप्टाचार की समस्याओं के लिए भी यह कहा जा सकता है ! समस्या को समाप्त करने के लिए दिये गये सुझावों का विरोध कई रूप में पाया जाता है। सबसे सामान्य युक्ति जो अधिकतर निहित स्वार्थ वाले समूहों द्वारा

१० १7007 ९ए०शकटं०४ 6०0 8० #ण्ादा।ग्राशत 89 टॉप ०णरधाफ्रगाए ता इएलाशड, इडहावालशाड 07 तल्डाटड, ऋगादा व. ३०2९७ 67 हाठपए णी वहतारातएवौड शा6 एजाणाहप जा 8 हॉश्व्क श्रीष्या[क्त,'. छा, 3. 7.., टलकाशलंगए कब बीछगक्ऊ, #फए००च5 एथशआाए79, गैर, ४078, 945, 446.

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2 ब्रालह (७०. *$म्नंग ०0८७5 2०१ व6 #80765", #कटहल्डव उ्लंगगढ अऑशांशर, ॥्रण, ॥, 922-33.

ह[ज़ए3, (., 4व 4क्‍टाव्यिव ऐप्रेकिय्व० पगेट हेल्टल0 आहट ठद्वी * इएथशग्त०० पेडाफटा, रे, हट, 944, 94.

34 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

अपनाई जाती है वह है समस्या के अस्तित्व को ही अस्वीकार करना। उदाहरणतः उन्नीसवी शताब्दी मे वाल-श्रम एक सामाजिक समस्या थी, परन्तु कुछ फैक्ट्री मालिकों ने जिनके कारखानों में बच्चे काम कर रहे थे, यह कहा कि वाल-श्रम इस कारण अच्छा है क्योकि इससे बच्चो का चरित्र बनता है और उनमें वचत करने तथा मेहनत की आदते विकसित होती है। ऐसे तर्क केवल मनोवैज्ञानिक युक्तिकरण (98900- ॥0809व 74/078॥$400०४७)है. और जनसाधारण को बहकाने के लिए होते हैं (2) सामाजिक समस्या को सुलभाने मे साधारणतया दिया जाने वाला. यह तर्क भी विरोध का कार्य करता है कि दिये गये मुझाव समस्या को सुलभाने के बदले और ज्यादा हानियाँ उत्पन्न करेगे। निर्धनता को कम करने और औद्योगिक विकास के लिए पूँजी उपलब्ध करने के लिए 969 में जो भारत में बैंको का राष्ट्रीयदरण किया गया था उसके विरोध में बहुत से पूँजीपतियो और उनके समयथंको ने ऐसे ही तक दिये थे | (3) तीसरी कठिनाई धीरे-धीरे काये 'करने की है उदाहरण के लिए बहुत समय तक भारत में यही नहीं भाना गया कि राजनीतिक नेताओं तथा ऊँचे अफसरों में भ्रष्टाचार पाया जाता है। अब जब उसे अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार किया गया है तो उसकी समाप्ति के लिए प्रयास बहुत धीरे-धीरे हो रहे हैं। यद्यपि निहित स्वार्थ वालो के युक्तिकरण [शीगाक्ांइथ्वांणा३ एलाव्त एरशा८४५) केवल समस्या के समाधान सम्बन्धी प्रयास का विरोध करने मात्र होते हैं परन्तु यह भी नहीं माना जा सकता कि उनके तक हमेशा ही गलत बहकाने वाले होते हैं कभी-कभी उनके तक सही भी होते हैँ जिस कारण किसी सोचे हुए सुझाव का सभस्या के निवारण के लिए तुरन्त प्रयोग नही किया जा सकता प्रत्येक सुझाव और प्रत्येक विरोधी तक की श्रेप्ठता को सामाजिक हितों के सम्दर्भ में परखना आवश्यक रहता है। है सामाजिक समस्याओं के समाधान का एक वैज्ञानिक सुझाव वाल्श और फर्फे ने दिया है। उनका कहना है कि हर समस्या का निवारण अवलोकेन, निर्णय और , क्रिया द्वारा ही हो सकता है ।+ यहाँ अवलोकन के अभिप्राय वैज्ञानिक तरीके से तथ्यों को एकत्रित करना है, निर्णय से अभिप्राय एकश्नित किये गये तथ्यों के वैज्ञानिक विश्लेषण से है, और क्रिया से अभिप्राय विभिन्न कार्यों मे से सही कार्य को ढूँढ निकालेसे है। हि अवलोकन भ्रथवा तथ्यों को एकन्रित करमा--जव तक समस्या के सही कारण मालूम करने के लिए पूरे तथ्य प्राप्त-नही है तव तक उसको समाप्त करने के लिए कोई भी उपाय बताना-अनिष्ट होगा उदाहरण के लिए, यह सुझाव कि कढोर दण्ड देंने से अपराधी पुनः अपराध नही करेगा तथा अपराध बिल्कुल समाप्त हो जायेगा तभी सही होगा जब सभी अपराधी 'सोचना' आरम्भ करेंगे परन्तु क्योकि

१एग5॥ 994 एच, ०. | 23-59.

सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन 4$

कुछ अपराधी हीनबुद्धि के अथवा मानसिक रूप से अविफसित होते हैं और कुछ अनुकरण कुछ उद्गे आदि के कारण अपराध करते है इसलिए केवल कठोर दण्ड अपराध-निरोधन का साधन नहीं हो सकता इसी प्रकार यह कहना कि भारत में अछ्ूत लीग प्रथाओं और नियमों द्वारा बदे हुए प्रतिबन्धों पर आपत्ति नहीं करते बिल्कुल गलत होगा ऐसा वे हो कह सकते हैं जिनको अस्पृश्य लोगों का राही भान नही है अत: किसी सामाजिक समस्‍या के समाधान का सुझाव केवल बैशानिक तरीकों से तथ्य एकत्रित करके उसके सही कारण मासूम करके ही दिया जा सकता है। तथ्यों की प्राप्ति में दुज्ञानिक साधन अपनाने बाले इस समय तीन ही समूह हैं : विश्वविद्यालय, सरकारी ससस्‍्थाएँ तथा अनुसन्धानक्गरों कुछ गैर-सरकारी सस्थाएँ यद्यवि इन संस्थाओ द्वारा किये गये अध्ययन सामाजिक सर्मस्याओं के निवारण के लिए सही तथ्य उपलब्ध कर सकते हैं परन्तु सामाजिक अनुसन्धानों द्वारा प्राप्त तथ्यों की प्रामाणिकता मे. निदर्शत ($009॥78), अध्ययन-विधि तथा पक्षपात॒ (0४5) आदि को,श्यान में रसना होगा ।, «+ निर्ंय भ्रथवां तथ्यों का विश्लेषश--तथ्यों के विश्लेषण की एफ विशेषता

यह है कि एक ही सामाजिक परिस्थिति की अलग-अलग व्यक्ति. अलग-अलग व्यास्या देते हैँ जनसंख्या के नियत्त्रण में परिवार नियोजन को कुछ लोग बुरा मानते हैं. तो कुछ आवश्यक इसलिए किसी सामाजिक समस्या के विष्लेषण में यह मालूम करना अत्यन्त आवश्यक है कि कौन-सी सामाजिक घटनाएँ सामाजिक समस्याएँ उत्पन्त करती हैं तथा कौन-सी कम महत्त्वपूर्ण अब यह निर्णय कैसे लिया जाये ? इसके लिए सर्वीच्च तरीका यह है कि प्राप्त सूचना के वैज्ञानिक विष्लेषण के अतिरिक्त सामाजिक नीतिप्नास्त्र (5०अं ०४४०5), जो तय पर निर्धारित है, और नैतिक अध्यात्मवियया (7००८) ॥०00०६५) जो नैतिक सदाचार पर आधारित है, फी भी सहायता लेनी चाहिए, क्योंकि यह दोनो विज्ञान मानवीय व्यवह्ार के आदर्श नियमों का अध्ययन करते हैं जिससे सामाजिक समस्याओं को राही तरीके से समझा जा सकता है। .,

कर्म--वेशानिक विश्लेषण के उपरान्त हमें यह निश्चित करना होगा कि सामार्जिक समस्या के समाधान के लिए कहाँ सामाजिक फर्म (502४) 8९०) फी आवश्यकता है और कहाँ सामाजिक कार्य ($0शंशं ७०६) की। इन दोनो में अवार है। सामाजिक कर्म प्रचलित सामाजिक और आर्थिक संरयाजों के परिवर्तन के लिए एक प्रयास है जबकि सामाजिक कार्य उन व्यक्तियों वे सहायता पहुँचाना है, जिरहें सहायता की आवश्यकता है। सामानिक कम॑ सामाजिक रामस्याओं को जड़ से उखाइकर उनके उत्पत्ति सम्बन्धी कारणीं को दूर करने का प्रयत्न करती है, सामाजिक कार्य केवल उनकी बुराइयों का शमन करता है। उदाहरणतः निर्धनता के उपचार के लिए सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी कानून पास करता एक सामाशिक कर्म होगा अवकि किसी निर्धव परिवार को कोई सहायता देना सागाजिक काये होगा। इस आधार पर स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि सामाजिक कर्म माप्ानशिक +

]6 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

समस्या के समाधान का सर्वोत्तम उपयय होगा फिर सामाजिक कर्म संगठित भी हो सकता है और व्यक्तिवादी कर्म भी संगठित कर्म सामूहिक प्रयास द्वारा अपनाया गया कर्म है और सामाजिक समस्या को समाप्त करते के लिए यह ही संग्रठित कर्म चाहिए। परन्तु व्यक्तिवादी कर्म भी कहीं-कहीं पर आवश्यक होगा अन्त में हम कह सकते हैं कि ध्याक्ति और समूह दोनों क्रियाझ्ील (8०४0८) होकर सामाजिक समस्या का निवारण कर सकते हैं। दूसरा, सामाजिक समस्या के लक्षणों तथा उस समाज के लक्षणों का, जिसमे समस्या को हल करने का प्रयत्त किया जा रहा है, विश्लेषण ही सामाजिक समस्या के नियत्तण में सहायक होगा

सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तत

निरुषधि (7८३४४४) सामाजिक जीवन में विस्तार और समस्या में विकास स्वाभाविक है परन्तु यह विस्तार और विकास जो समाज में परिवर्तन उत्पन्न करता है कभी-कभी हमारी सामाजिक संरचना की नीव को हिला देता है इसका व्यक्तियों और समूहों पर इसना प्रभाव पड़ता है कि सामाजिक कुसमायोजन (४०णंशे गा240]039 600) पैदा होता है और इसी कुसमायोजन से सामाजिक समसस्‍्याएँ उत्पन्त होती हैं जैसा कि ऊपर बताया गया है सामाणिक परिवर्तेन और सामाजिक समस्याओं का घनिष्ठ सम्बन्ध है कुछ रामस्याएँ सामाजिक परिवर्तत का परिणाम होती हैं और कुद्ध स्वयं सामाजिक परिवर्तन लाती हैं फिर कभी-की सामाजिक समस्याओं के समाधान से भी सामाजिक परिवर्तन होता है। समाज के परिवर्तन में जब लोग समायोजन नहीं कर पाते तब इसी अपसमायोजन से सामानिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं फेल्पस और हेन्डर्सत में अमेरिका में 840 और 860 के मध्य कैवल 22 समस्याएँ पायी जबकि 950 में इनकी संख्या उन्होंने 90 पायी ।" इनके बढ़ने का एफ कारण उन्होंने सामाजिक परिवर्तत बताया है जो नयी परिस्पितियाँ दैंदा करता है जिनसे विभिपष्न समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। उदाहरण के लिए, गाड़ियों की दुर्धटनाएँ 860 में सामाजिक समस्या नही थी परन्तु अब उसे गम्भीर समस्या मामा जाता हैं। ग्रितित डिट्रमर, कोलवर्ट और कैसलर का भी कहता है कि समाज में परिवर्तव हर व्यक्ति और हर समूह को प्रभावित करता है और क्योंकि समाज का शक बुत बड़ा भाग अपने को समय के अनुकूल शीघ्र और सम्पूर्ण रूप से बदत नहीं पाता इस कारण सामाशिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं ।५

मैल्मन, रेम्ज्े और वर्मेर” वा विचार है कि अधिकांश मालवीय समस्याओं में विसी ने किसो रूप में सामाजिक फरिवर्तत मिलता है। सबसे पहले ती परिवर्तत

काराछ, शउाणंव 4. हब #004ंटाउठ8 0350, (०#/स०फ्रनण> उनसे गिक ##नऊ पिल्या&० हीजी, ह:72ॉ7७००० (4 ६5805), 7952, 6-7.

३९ 5॥॥7७ ६... 9:8/666, 0.0. (०७, हू. 3., $.3४06; 7२. का, उत्सव 220० हारूप (सश ल्राघ9त*,. पम्ेद पचाल विठए एल्‍लड, ह0वाए3१५ 4965, 2.

कटाउउत, प्बताइटक बहाव धटाएटा, ०, 2. 39.

सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन हक

किसी प्रकार का भी हो उससे समस्याएँ अवश्य उत्तन्न होंगो क्योंकि परिवतेन अभ्यस्त व्यवहार से एक तरह का विचलन है। दूसरा, परिवर्तेत के कारण जब व्यक्ति किसी समस्या का सामता करता है और उसके समाधान हेतु वह अपने सम्बन्धों का समायोजन करता है तो सम्बन्धों का यह समायोजन भी एक प्रकार का परिवर्तन हीगा। कभी-कभी व्यक्ति के सामाजिक सम्बन्ध इस तरह बदलते है जिसका उसने अनुमान भी नही लगाया था और वैसे नये सम्बन्ध वह चाहता ही था। इन नये अप्रिय तथा अनिच्छित सम्बन्धों के कारण फिर नयी समस्याएं उत्पन्न होती हैं इस प्रकार एक समस्या कै निवारण से दूसरी समस्या पंदा होती है और यह कार्यक्रम निरन्तर चलता रहता है

सामाजिक परिवर्तन को अनुभव करना आसान है परन्तु उसकी प्रकृति की भविष्यवाणी करना तथा इसका नियन्त्रण कठिन है। परिवर्तत को समभने के लिए यह आवश्यक है कि कोई आधार रेखा हो जिससे परिवर्तन को नापा जा सके परन्तु मूल्यों की भिन्नता आदि के परिणामस्वरूप यह आधारभूत रेखा प्राप्त करना सरल नही होता

अब हमें यह देखना है कि भारत में इस शताब्दी में पिछली शताब्दी करी अपेक्षा किस तरह का परिवर्तन मिलता है जिसमें हम अपना समायोजन नहीं फर पाये हैं जिसके फलस्वरूप समस्याओं का सामना कर रहे है। मुख्य रूप से हमें घार प्रकार के परिवर्तन मिलते हैं--- पर

4. धर्मरक्षित (5४०९०) से धर्मनिरपेक्षता (०८००) में परिवर्तन

2. समरूपता (#णा०हथाशा9) से भिन्नता (#९6६०एथाला३) में परिवर्तत

3. लोक कथाओं (0)0076) से विज्ञान ($थ्था०८) में परिवर्तन

4. प्राथमिक समूहों के प्रभाव में कमी

जहाँ तक परिवतंन लाने वाले तत्त्वों का प्रश्न है प्रमुस रूप, से चार तत्त्नो ने इस सन्दर्भ से मुख्य कार्य किया है--(क) औद्योगीकरण; (ख) यातायात थे संचारण के साधनो का विकास; (ग) शिक्षा के कारण धामिक विचारों में परिवर्तन; और (घ) सरकार द्वारा पास किये गये अधिनियम ओद्योगीकरण भारत में ब्रिटिश काण से प्रारम्भ हुआ है। इस औद्योगीकरण का जाति-व्यवस्था, परिषार,, सम्पत्ति आदि पर गहरा प्रभाव पड़ा है। पूंजीवाद उद्योग-व्यवस्था का प्रारम्भ सम्पत्ति प्रणाती वे श्रम-विभाजन में परिवर्तत लाया है तथा इसने मये सामाजिक यर्गों को जन्म दिगा है जिन्होंने भारत के राजनीतिक विकास में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इसके अतिरिक्त फैक्ट्रियों के विकास के कारण श्रमिकों मे बेरोजगारी, मात्तिब>श्रमिकों में संघ, तथा इनके पारस्परिक सम्बन्धो आदि से भो सामाजिक समस्याएँ पैदा हुए *

* गिलिन, डिट्रमर, कोलवर्ट और फंस्लर" के अनुगार परियर्तन दिद्वाएँ होती है--() प्राथमिक विश्ञा--जिमका प्रत्यक्ष सम्बन्ध नये. ऐ. हे 2 | (3॥॥9, 700ए67 बगठ एबशाल, ०#. ८, 353.

]8 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तत

सरोज की स्वीकृति से, जनसंस्या की आकस्मिक अदला-वदुली (अंग) से, तथा साधनों के प्रयोग (०फ्रांण।॥४68 5९४०प४००७) ते है। (2) द्विततौपषक दिशा--« जिसका सम्बन्ध प्राथमिक दिश्ला में प्राप्त परिवर्तेत से उत्पन्न हुए कुसमायोजन से है उदाहरण के लिए आधुनिक चिकित्सा की प्रगति को लीजिए नये आविष्कार स्वीकार कर हमने वीमारी और मृत्युदर को कम किया है। यह परिवर्तत का प्राथमिक पहलू है जो चिकित्सा-आ्षास्त्र में प्रगति के कारण मिलता है परन्तु इस प्रयति का द्वितीयक पहलू यह है कि हजारों-लाखों व्यक्ति जो. आधुनिक जीवन की बढती हुई आवश्यकताओं का सामना नहीं कर सकते वे भी जिन्दा रहते हैं और ये व्यक्ति सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न करते हैं इस प्रकार अन्य उदाहरण लेकर भी यह बताया जा सकता है कि परिवर्तन से उत्पन्न कुसमायोजन ही सामाजिक समस्याओं के लिए उत्तरदायी है

सामाजिक समस्वाएँ भोर समाजशास्त्र समाजशास्त्र सामाजिक समस्या को किसी एक कारण द्वारा स्पष्ट करके उसे सम्पूर्ण समाज की विभिन्न दिशाओं की पृष्ठभूमि में स्पष्ट करता है। एक साधारण व्यक्ति सामाजिक समस्याओ को ऐसे देखता है जैसे सभी समस्याएँ अलय- अलग रहती हो और उनको सुलभाने के लिए अलग-अलग प्रयास करने हो इसके' विपरीत समाणश्यास्त्री हर समस्या की जड़ें सामाजिक व्यवस्था में दूँढ़ता है। वह सभी सामाजिक समस्याओं को विस्तृत दुष्टिकोण से देखता है तथा सम्पूर्ण जीवन को कुछ भागो में विभक्त करके तथा तदुपरान्त उनका अध्ययन करके उनके व्यापक स्वरूप को प्रस्तुत करता है। समाजशास्त्री केवल सामाजिक घटनाओं को समभते का प्रयत्व करता है अपिबु उन कार्यक्रमों और नीतियों को भी ढूँढ निकालने का प्रयास करता है जिनसे समाज की उन्नति हो सके बह प्राप्त तथ्यों से जो सिद्धान्त विकसित करता है थे हमें वह वैज्ञानिक ज्ञान प्रदान करते हैं जिनसे समायोजन के लिए आवश्यक कार्यक्रम उपलब्ध किया जा सके जिससे सामाजिक समस्याओ को भी रोका जाएं। परन्तु क्लीमैन्स तथा एवराडे का कहना है कि विश्विप्ट समत्याओं की सुलभाने के लिए समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के सफल अयोग के बहुत कम उदाहरण मिलते हैं ॥# सामाजिक समस्याओं का समाजग्मास्त्रीय शोध उसके समाधान हैतु नहीं होता परन्तु व्यक्ति के व्यवहार को स्पथ्ट रूप से व्यक्त करने के लिए होता है उदाहरणत:, भपराध के समाजदास्त्रीय अध्ययन का प्रमुख सकारात्मक योगदान यह दिखाता रहा है कि अपराधी व्यवहार की जैविकीय, सवोवेशानिक तथा भौगोलिक आदि अनेक प्रचलित व्याख्याएँ अमान्य हैं वारवरा बूटत ने भी कहा है कि स्रामाजिक व्याधिकी के प्रश्नों पर सुनिश्चित अस्वेषणों का प्रमाव मुख्यतः सभी

₹६ (;८ग्रा॥०० 2850 [। 7 4 फ् 242 उन्लगग0, 72 बात, 2#द242भार कील फलकाओी अकाविं दशदादाए थीं

साम्राजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवततंन !9

नये विश्वासों की विश्वसनीयता को कम करज़ा रहा है। समस्या के कारणों के विश्लेषण और उनको दूर करने के उपायों में भी इस बात को समाजद्यास्त्री महृत्त्त देते हैं कि उनसे सामाजिक मूल्यों को हानि पहुँचे उदाहरण के लिए, समाज- शास्त्री अपराधी व्यवहार के शोध में केवल विभिन्न प्रकार के अपराधों में भ्रेद स्थापित करते हैं तथा प्रत्येक प्रकार के लिए विशिष्ट कारणो की खोज फरते हैं अपितु इस बात का भी विश्लेषण करते हैं कि अपराधियों के सुधार मे कौनसे तरीके अपनाए जायें जिनसे समाज को भी सुरक्षा प्राप्त हो और साथ मे अपराधी के व्यक्तित्व को भी बदला जा सके इसी प्रकार तलाक सम्बन्धी अध्ययनों का उद्देश्य भी उन कारकों की जानकारी प्राप्त करना है जो दाम्पत्य जीवन के संघर्ष को समाप्त कर सकते हैं तथा जिनका प्रयोग विवाह सम्बन्धी परामर्श तथा अन्य प्रकार से मिलती-जुलती समस्याओं की आवृत्ति कम करने के लिए तथा बिता परिवार को छिन्न-भिन्न किये इत समस्याओं के समाधान को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि समाजशास्त्री यद्यपि यह्‌ समभाने की स्थिति में नही हैं कि कोई सामाजिक समस्या क्यों उत्पन्न हुई परन्तु वे सामाजिक समस्या के कारणों के बारे में कुछ दोषपूर्ण किन्तु लोकप्रिय विश्वासो का निषेध अवश्य करते हैं। इसके अतिरिक्त वे यह बतलाने की स्थिति में अवश्य हैं कि विभिश्न उपचार सम्बन्धी निर्णयों के सीमित दायरे में कौन-सा निर्णय वांछनीय परिणाम उत्पन्न कर सकता है। यथपि वे युद्ध को रोक नही सकते हैं परन्तु कम से कम यह समझाने में महत्वपूर्ण ढंग से सहायता कर सकते हैं कि तनाव एवं संधपं की संकटकालीन स्थिति किस प्रकार उत्पन्त होती है| वोटोमोर का भी यह कहना है कि समाजशास्त्रीय अध्ययन सामाजिक समस्याओं के बारे में अधिक यथार्थवादी हृष्टिकोण को प्रोत्साहित कर सकता है तथा विशेषतया उन अनुदार भत्सेनाओं को रोक सकता है जो कि प्रायः समस्याओं को बढा देती हैं। अन्त मैं यह कहा जा सकता है कि सामाजिक सभस्याओं के समाजशास्त्रीय विवेचत से हमारा अभिप्नाय है ह॒ () समाजशास्त्रीय विवरण कि सामाजिक समस्याएँ क्यो और फंसे उत्पप् हीती हैं तथा समस्या के एक पंहलू का नहीं अपितु सभी पहलुओं का सामान्यता के आधार पर अध्ययन करना. (2) एक वह दृष्टिकोण जिससे समस्या को बिता वक़ता (80707) या अतिशयोक्ति (७८४९४थ०४०) के अतीत वतेमान समाज के सन्दर्भ में देखा जा सके (3) सिद्धान्त और व्यवहार के अन्तर-सम्बन्ध का सही और निपुण शान: - जिसमें सिद्धान्त की वास्तविक उपयोग द्वारा जाँच की जा सके,तथा सभी उपयोग की जाने वाली नीतियों का कार्यक्रम वैज्ञानिक सिद्धान्त पर आधारित हो। (4) सामाजिक समस्याओ का व्यक्तित्व, समूहों तथा संस्थाओं आदि पर भ्रभाव का स्पष्टीकरण . (5) समस्या:के निराकरण के लिए दिए गए सुझावों के परिणाम; आना (6) वर्तमान सामाजिक समस्याओं के प्रति सचेतना उत्न्न करना

शा अपराध और अपराधी (एक्ट 3१७ टक्छाशआा४37.5)

घर

अपराध का श्र्थ

कानुनी हृष्टिकोण से अपराध का अर्थ है वह व्यवहार जो कानून का उल्लंधत है अथवा जो अपराध संहिता (४7४४४) ००००) द्वारा निषेधित है। माईकिल भौर ऐडलर के अनुसार अपराध की यह कानूनी परिभाषा ने केवल यथार्थ और स्पष्ट है परन्तु बही परिभाषा उचित एवं उपयुक्त है !! अपराय की इस परिभाषा के अमुसार अपराधी वह है जिसको न्यायालय द्वारा दोषी प्रमाणित किया जाता है और इस सिद्ध दोय के लिए दण्ड दिया जाता है। यदि किसी व्यक्ति में कोई अपराध किया है परन्तु न्यायालय में वह अपराध सिद्ध होने के कारण बरी हो जाता है तव वह कानूनी हृष्टिकोण से अपराधी नहीं कहलायेगा समाजश्मास्त्र मे अपराध और अपराधी की एक और ही दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाता है। अपराध को हम व्यावहारिक तियमो के उल्लंघन के हष्टिकोण से और अपराधी को इन नियमों के उल्लंघन के कारण उसके व्यक्तित्व के विकास, परिवार और समाज के ऊपर प्रभाव के हृष्टिकोण से अध्ययन करते हैं। यंयपि अधिकांश सामाजिक नियमों के उल्लंघन के लिए कानून बना होता है प्ररन्तु ऐसे भी नियम है जितके उल्लंघन के लिए कोई विधि विधान नही होता इस कारण एक व्यवहार सामाजिक हप्टिकीण से अपराध (अथवा नियमों का उल्संघत) तो हो सकता है अपितु काबूती दृष्टिकोण से नहीं। समाजशास्त्रीय हम्टिकोण से वह व्यवह्र जो आदर्शात्यक समूहों के व्यावहारिक नियमों के अनुरूप है वह 'सामास्याँ (07४) व्यवहार है और जो इन तियमों का उल्लंघन करता है वह 'समाज-विरोधी' (मं 30०4) व्यवहार है और मह ही अपराध भी कहलाता है। यहाँ हमें तोन शब्दों को सममता है : व्यवहार, व्यावहारिक मियम और आदर्भात्मक समूह व्यवहार आत्यार छा भर्य है व्यक्ति की क्रिया (व०्धंशात) या प्रतिक्रिया ((८3०४०॥६) और यह क्रियाएँ और प्रतिक्रियाएँ केवल कुछ परिस्थितरियों में ही सम्भव हैं। व्यावहारिक नियम आदर्भभूलकू समूहों के वे नियम हैं जो विभिन्न परित्यितियों थे व्यक्ति के ध्यवह्दार को निर्धारित करते हैं। क्योकि व्यक्तित्व एक

+ १८036, 3,, 35 #ैए]65, कै. 3., (976, उ-छ छवबें उतर 5द/श्रल सिंडाएएजा 82८८, 7२. ४०४8, 3933, ॥8.

अपराध और अपराधी पु नर

सामाजिक उपज (5०0ंथ ए7007०) है इसलिए व्यक्ति का व्यवहार समाज द्वारा निर्धारित होता आवदयक है इसी कारण समाज ने अपने सदस्यों के व्यवहार को नियन्त्रित करने के लिए कुछ नियम बनाये हैं। समाज में बहुत से समूह हैं, जैसे परिवार, स्कूल, पड़ोस आदि और हर व्यक्ति ययवि इन सभी समूहों का नही किन्तु इनमें से अधिकांश समूहों का सदस्य होता है क्योंकि वे उसके शारीरिक, मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक आदि आवश्यकताओ को पूरा करते हैं। अधिकतर समूह एक प्रकार से आदश्शमूलक (707720४6) होते हैं क्योकि उनमें वह व्यावहारिक नियम पैदा होते 'हैं जो उन परिस्थितियों से सम्बन्धित हैं जो उन समूहो के विशेष कार्यों के कारण उत्पन्न होती हैं। समूह के सदस्य होने के वाते व्यक्ति को उसके नियमों का पालन करना पड़ता है ! समाज में जेसे यह अलग-अलग नियमों वाले समूह बढ़ते हैं, व्यक्ति को विभिन्न तियमों और कार्यों का, सामना करना पड़ता है। अतएव, वह केवल उन समूहों के नियमों का ही पालन करता है जिनसे वह अपने को घबरिष्टतापूर्वक समीक्ृृत करता है और अन्य समूहों के नियमों के पालन से विचलित होता है यहू विचलित व्यवहार ही अपराध कहलाता है। परन्तु तियमो का हर विचलन या उल्लंघन अपराध नहीं होता क्लिनार्ड ने तीन प्रकार का सामाजिक नियमों का विचलन बतलाया है।-- ]. वह विचलन जिसको सहन किया जाता है (णक्षशव्व हल्एंत्रांणा) 2. बह विचलन जो साधारण धृणा (7॥6 ०|52ए970ए4) इनका विरोध उत्पन्न करता है 3, वह विचलन जो अत्यधिक घृणा प्रबल विरोध (88078 0/589/0५4॥) पैदा करता है इन तीनों में से क्लिना्ड तीसरे प्रकार के विचलन को ही अपराध मानता है। उदाहरण के लिये भारत में जाति प्रथा को लीजिये। जाति प्रथा ने अद्ूतों से सामाजिक दूरी रखने का एक नियम निर्धारित किया है। गाँधी जी ने केवल इस निग्रम का स्वयं उल्लंघन किया पर अन्य लोगों को भी इसके उल्लघन के लिए प्रेरित किया; परन्तु फिर भी हम गाँधीजी को अपराधी नहीं मानते और उनके कार्य को अपराध कहते हैँ क्योंकि यह्‌ उत्लंधन समाज के हित में था वह विचलन जो समाज के हितों के लिये हानिकारक है और वहुत-अधिक घृणा पैदा करता है, वह “ही सामाजिक दृष्टिकोण: से अपराध माना जाता है। क्योंकि हर समाज के हित ओर नियम अलग-अलग होते हैं इस कारण एक व्यवहार एक समाज में अपराध हो सकता है, पर दूसरे में नही फिर, क्योकि.समाज-के हिंत भी समय के साथ-साथ बदलते रहते हैँ इस कारण एक ही समाज में एक व्यवहार एक समय में थपराध हो सकता है किन्तु दुसरे मे मही इसलिये समाजश्मास्त्रीय दृष्टिकोण से किलनाडड, ने (2]0874, इचैबाउआा॥। छ., 509ल0०/०१७ 0शाकका अेलबाए० ०, स0९, बण्व ए॥05०४ 47०., )४. ४०70, 4957, 22.

22 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवतेन

अपराध की एक व्यापक परिभाषा दी है कि अपराध सामाजिक नियमों का उल्लंघन है? अतः जब अपराध का कानूनी हृष्टिकोण न्‍्यायातय द्वारा दोप-प्रमाण और झण्ड पर बल देता है, सामाजिक दृष्टिकोण इनको आवश्यक नहीं समझता इसी आधार पर समाजमास्त्रियों द्वारा अपराध की विभिन्न परिभाषाएँ भी दी गयी हैं। कात्डवैल के अनुसार अपराध उन गूल्यों के संग्रह का उल्लंघन है जो विश्चित स्थान पर किसी एक ब्रिशेष समय में एक संगठित समाज को मास्य हैं ।* रेडबिलफ ब्राउन के झब्दों में अपराध उस आचरण (४६०४८) का उल्लंपत है जिसके लिए दण्ड देने की व्यवस्था की गयी है ।£ माऊरेर का कहना है कि अपराध एक समाज-विरोधी कार्य है! अनुसन्धान-सम्बन्धी (्णफ्ांतं्ण) अध्ययनों के हष्टिकोण से हथ अपराध की कानूनी परिभाया को अधिक मान्यता देते हैं। अपराधपास्त्र में जितने भी अनुसन्धान होते हैं उन सवका आधार अपराध की कानूवी परिभाषा ही होता है हाल जेरोम ने अपराध के कुछ वैल्क्षण्य (70८एथ॥9) बताये हैं।” उसका कहना है कि किसी भी व्यवहार को तब तक अपराध नहीं मानना चाहिए जब तक उसमें हे सभी लक्षण हों। इनमे से पाँच मुख्य लक्षण ये हैं--() हानिकारक कार्य; (2) इच्छानुरूप या संकल्पित कार्य; (3) कानूनी प्रतिवस्ध। (4) अपराधी उद्देश्य; (5) कातूम द्वारा निर्धारित दण्ड इन्ही भेदक सक्षणों के आधार पर अपराध की हम यह व्यापक परिभाषा दे सकते हैं: वह ऐच्छिक कार्य जो सामाजिक हितों के लिये हानिकारक है, जिसमे अपराधी उद्देश्य है, जो कामूनी हृष्टि से प्रतिवन्धित है भौर जिसके लिये कानून दण्ड निर्धारित करता है ।* हे कुछ व्यक्ति अपराध, पाप, अनेतिकता और व्यक्तिगत क्षति (807॥) में अन्तर नहीं मानते जबकि ये अलग-अलग शब्द हैं। अपराध कानून का उल्लंघन (कामूनी इष्टिकोणप) या सामाजिक सियसों का विचलन (सामाजिक दृष्टिकोण) है; पाप वह कार्य है जो धामिक आदेशों के विरुद्ध है अथवा जो दैवीय अधिकार का उत्लेधन है! भूंठ बोलता, किसी अमीर व्यक्ति द्वारा किसी निर्धन की अत्यन्त आवश्यक समय में

उ88., 28.

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अपराध और अपराधी 323

सहायता करना तथा सन्तान हारा माता-पिता का अनादर करना पाप हो सकते है किन्तु अपराध नहीं एक कारये पाप हो सकता है पर अपराध नहीं, परन्तु एक ही कार्य पाप अपराध दोनों भी हो सकते हैं, जंसे विशवासघात करना।

अनैतिकता वह कार्य है जो अन्तरात्मा या विवेक के विरुद्ध है। यह बह अनुचित कायें है जिसमें करने वाले को ही कप्ट सहन करना पड़ता है। कालेज से घर जाते समय यदि कोई विद्यार्थी रास्ते में किसी मोटर द्वारा घायल व्यक्ति की सहायता करने के बजाय सीटी बजाता घर चला जाये तो उसका कार्य अपराध नही कहलायेगा यद्यपि उसकी आत्मा उसके लिए उसे कोसती रहेगी।

दुराचार (५०८) में जुआ, मदिरापान, वैश्यागमन आदि जैसे व्यवहार आते हैं। यह अपराध हो भी सकते हैं अथवा नहीं भी यदि कोई व्यक्ति अपने घर में शराब पीता है और किसी प्रकार का जनोपद्रव पैदा नहीं करता तब घह अपराध नही होगा चाहे वह दुराचार क्यों हो; पर अगर यही व्यक्ति किसी सार्वेजनिक स्थान में शराब पीकर उपद्रव पैदा करता हैं तब वह अपराध करता है। इसी प्रकार किसी जुआधर में जुआ सेलना अपराध होगा परन्तु घर में ताश खेलना नहीं

बेयक्तिक अपकार ((०7/) व्यक्ति के हितों को हानि पहुँचाता है जवकि अपराध समाज के हितों को नुकसान पहुँचाता है। दूसरे शब्दों में अपराध एक सार्वजनिक अनुचित कार्य है और अपकार एक वैयक्तिक दोपपूर्ण कार्य है। चैयक्तिक अपकार में जब तक क्षतिग्रस्त व्यक्ति हानि पहुँचाने वाले के विरुद्ध शिकायत नहीं करता, राज्य उसके विरुद्ध कोई कानूनी कार्यवाही नहीं करता परन्तु अपराध मे किसी अभियोग के बिता भी नुकसान पहुँचाने वाले के प्रति राज्य कार्यवाही करता है। साधारण तोर पर अपराध और वेयक्तिक अपकार में कोई विशेष सीमा नहीं खीची जा सकती मान लीजिए एक व्यक्ति 'क' एक अन्य व्यक्ति 'ख' के घर में अनधिकार घुस जाता है तब 'क' का कार्य 'ख! के विरुद्ध वैयक्तिक अपकार कहलायेगा। पर यदि 'क' घोरी करने की इच्छा से 'ख' के घर घुसता है तब उसका कार्य अपराध कहलायेगा इस प्रकार अपराध और वेयक्तिक अपकार पारस्परिक रूप से भिन्न नहीं हैं

अपराधों का वर्गोकरण

अपशणधो का वर्गकिरण विद्वानों ने अलग-अलग आधार पर किया है। सदरलेण्ड ने गम्भीरता के आधार पर दो प्रकार के अपराध बताये हैं : जधन्य या गम्भीर अपराध और साधारेण अपराध ।' जघन्य अपराध जैसे खून, डकती आदि के लिए मृत्यु का दण्ड अथवा एक वर्द से अधिक कारावास दिया जाता है और साधारण अप्राध जेंसे चोरी, मारपीट आदि के लिए चाप्फतऋच्द-जैसे कछ समय

590९7870, 8, प्र., ४9. ८., 46

"24 सामाजिक समसस्‍्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

के लिये कारावास, जुर्माना आदि किया जाता है। परन्तु जेम्स स्टीफेन!" और कुछ अन्य विचारकों के अनुसार यह वर्गीकरण अधिक उपयोगी नही है। इसका पहला कारण यह है कि एक समाज में एक अपराध जघन्य हो सकता है परन्तु वही अपराध दूसरे समाज में साधारण माना जा सकता है। इसी प्रकार एक ही समाज में एक अपराध एक क्षेत्र में.जधन्य हो सकता है और दूसरे क्षेत्र में साघारण अथवा एक काल भें साधारण और दुसरे काल में जघन्य दूसरा कारण यह है कि एक अपराध जिसे समाज ने साधारण माना है वह वास्तव मे जघन्य हो सकता है, उदाहरणतया खाने में विष मिलाना इतना अधिक गम्भीर अपराध नही माना जाता जितना किसी की हत्या करना यद्यपि विष मिले हुए खाने से बहुत से व्यक्तियों की मृत्यु हो सकती है जबकि हत्या द्वारा एक ही व्यक्ति को मारा गया हो। अपराधियो के सुधार के दृष्टिकोण से भी यह वर्गीकरण अधिक उपयोगी नही माना जाता क्योंकि सुधार का आधार अपराध की ग्रम्भीरता नही है अपितु अपराधी का व्यक्तित्व और परिस्थिति की प्रकृति है। परन्तु इन तकों के बाद भी लगभग हर समाज में अपराध की गम्भीरता अपराधों के वर्गीकरण का सदेव एक मुख्य आधार रही है। बोंगर ने प्रेरक उद्देश्य (9०7५७) के आधार पर चार प्रकार के अपराध बताये है--[क) आथिक अपराध, जिसमे धन-प्राप्ति अपराध का मुख्य उद्देश्य है। (ख) यौन-सम्वन्धी अपराध, जिसमे यौन-सम्बन्धों की तृप्ति ही अपराध का मुख्य कारण है (ग) राजनीतिक अपराध, जिसमें राजनीतिक क्षेत्र मे लाभ के कारण अपराध किया जाता है। (घ) विविध अपराध, जिसमें बदले की भावना प्रतिशोध अपराध का मुख्य आधार होती है ॥/ परन्तु यह वर्गीकरण भी अनुपयुक्त माना जाता है क्योकि यह आवश्यक नहीं है कि कोई अपराध केवल एक ही उद्देश्य से किया जाये किसी की ह॒त्या करने 'में एक साथ आर्थिक, लिंगीय और राजनीतिक उद्देश्य तथा बदले की भावता भी हो सकती है। ऐसे अपराधो को थोगर द्वारा दिये गये चार प्रकार के अपराधो में से किसी एक में रखना सम्भव नही है साख्यिकीय (४४४8४०७)) आधार पर अपराधों को निम्न चार समूहों में रखा गया है--(क) व्यक्ति के विरुद्ध अपराध, जैसे हत्या, मारपीट आदि; (ख) सम्पत्ति के विरुद्ध अपराघ, जैसे चोरी, डाका आदि; (ग) सार्वजनिक न्याय . और सत्ता के विरुद्ध अपराध, जैसे गवन, घोखा आदि; तथा (घ) सार्वजनिक व्यवस्था, शिष्टाचार (१०८८४०५) और सदाचार के विरुद्ध अपराघ, जैसे घराव पीकर जतोपद्रव मचाना, अव्यवस्थित व्यवहार आदि हा

+ +े ३९ डालर, जग्राव$ ए.,.- 4 मफाश> थक टीप॑कानिवों स-वाक थी दगहांविएर्, कै 8९- प्र॥॥ 880 (०., [009097, 8883, 32॥. 2 एजाह८, १४. #.., (कंक्राह्या।02 खबें >2०7०क्रां2 (का्ीधिगाऊ, जी ऐेाएच्राप 803800, 96, 536-37. हु ि

अपराध और अपराधी 25

लेमर्ट ने दो प्रकार के अपराध बताये हैं?--() परिस्थिति सम्बन्धी अपराध और (2) सुव्यवस्थित अपराध परिस्थिति सम्बन्धी अपराध वह अपराध है जो किसी परिस्थिति से बाध्य होकर तथा प्रतिकूलता के कारण किया जाता है। सुव्यवस्थित अपराध वह अपराध है जिसका हर पहलू पहले ही से निश्चित होता.है, जैसे किसकी हत्या करनी है, कव करनी है, कहाँ करनी है, कंसे करनी है, इत्यादि

क्लिनार्ड और क्वीने (07870 & (एणा॥76५) ने अपराध के प्रकार पद्धति के निर्मोण में अपराधी व्यवहार की पद्धतियों को आधार बताया है” पद्धति से उनका अर्थ दिये गये प्रकार के लक्षणों में उस सम्बन्ध का पाया जाना है जिससे पारस्परिक सम्बन्ध स्थिर (००॥७/आ॥) रहते हैं। इस आधार पर उन्होने आठ प्रकार के अपराध माने है: हिंसात्मक व्यक्तिगत अपराध, सम्पत्ति सम्बन्धी आकस्मिक अपराध, व्यावसायिक अपराध, राजनीतिक अपराध, सावंजनिक व्यवस्था (ए7०॥० ००८7) सम्बन्धी अपराध, परम्परागत (०णाश्टव/०धथ) अपराध, समठित अपराध, तथा पेशेवर अपराध

उपयुक्त वर्गीकरण के अतिरिक्त अपराधों के दो अन्य प्रकार भी दिये जा सकते है--(4) संगठित और असंगछित अपराध, तथा (2) वैयक्तिक और सामूहिक अपराध संगठित अपराध वह अपराध है जिसमें भधिक अपराधियों का पारस्परिक सहयोग पाया जाता है अर्थात्‌ जिसमें अपराध-कार्य एक सामूहिक प्रयास है। इसमें अपराध का मुख्य उद्देश्य आथिक लाभ होता है, अधिकार का केन्द्रीकरण होता है, विभिन्न कार्यो के विशेषीकरण और कततेज्यों के विभागीकरण के लिए श्रम-विभाजन' पाया जाता है, अपराधी उपक्रमों मे एकाधिकार प्राप्त करने के लिए व्यापक और एकाधिकारात्मक प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं, सदस्यो के व्यवहार को नियन्त्रित करने के लिए नियम और काय॑ करने सम्बन्धी तरीके निर्धारित किये जाते है, समूह के अपराधी कार्यों के लिए मूल धन (०५०८४) जुटाने हेतु एक कोप स्थापित किया जाता है, तथा संकट (778८) को कम करने के लिए और अपराधी उपक्रमों की सफलता के लिए निश्चित योजना वनायी जाती है। काल्डवैल ने इस संगठित अपराध के तीन मुख्य प्रकार बताये हैं।---

, संगठित (पपराधी) गिरोह--इस गिरोह द्वारा बड़े पैमाने पर चोरी, डर्कृती, अपहरण, महसूली माल को चोरी से मंगाना जैसे अपराध किये जाते हैं। यह गिरोह सर्देव हिसक तरीके ही प्रयोग मे लाते हैं

2, दस्युता छुटपाट (/२४८८४८८४४०४)--इसमे डरा धमका कर. अथवा हिसात्मक तरीकों से संगठित अपराधी गिरोह द्वारा वैध या अवैध घन्दे बालो से

2 [.८घटाए, 52099 9, 59लंवां 72/०6/८४४४ 958, 9. 44.

एाधराबाव 6 (णं्राई१ "टापगं/ड॥] ऐटडशंण्पर 5चशव्याई 8 70029, सग:७ फतदयोजा। & १४0500 ॥82., 7४, ४००६ 967, 44-8.

मे (बात था, ०१ ८ा.. 74 रे

26 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तत

रुपया एँठा जाता है।

3. श्रपराधी भ्रभिषद्‌ सिडीकेट ($५70८४0)--इसमें संगठित अपराधी गिरोह द्वारा अवैध माल या सेवाएँ उपलब्ध की जाती हैं। यह अपने उद्देश्यों को प्राप्ति बिना हिंसा के प्राप्त करते हैं

असगठित अपराध संगठित अपराध के बिल्कुल विपरीत होता है। वैयक्तिक अपराघ एक ही व्यक्ति द्वारा किया जाता है और सामूहिक अपराध एक से अधिक व्यक्तियों अथवा समूह द्वारा किया जाता है

इन विभिन्न प्रकार के अपराधो में से समाजशास्त्र में अंपराधी के सुधार के हृष्टिकोण से लेमर्ट द्वारा दिया गया वर्गीकरण अधिक उपयोगी पाया गया है

भारत मे कानूनी हृष्टिकोण से अपराध को तीन संमूहो में वाँटा गया है--

() बे अपराध जिनके लिए भारतीय दण्ड विधान ([709॥ एटा 0००४) द्वारा दण्ड निर्धारित किया गया है; इनको फिर वहुत से उप-समुहों में बाँटा गया है, जैसे जीवन-सम्बन्धी अपराध, सम्पत्ति-सम्बन्धी अपराध, राज्य के विरुद्ध अपराध, सावंजनिक-शान्ति सम्बन्धी अपराध इत्यादि।

(2) वे अपराध जिनके लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता (एपराणंगभ 070006ए६ (0००९) द्वारा दए्ड निर्धारित किया गया है। इनको दो उप-समूहों मे वाँटा गया है--- (अ) शान्ति भंग करने सम्बन्धी अपराध, तथा (व) दुव्येबहार सम्बन्धी अपराध

(3) बे अपराध जिनके लिए विशेष और स्थानोय कानूनों द्वारा दण्ड निर्धारित किया गया हैं।

यह वर्गीकरण अपराधी कानूनों को नियमवद्ध करने हेतु उपयोगी हो सकता है परन्तु यह सैद्धान्तिक विश्लेषण के लिए अधिक सहायक नहीं है

अपराधियों का वर्गीकरण

समाजश्ञास्त्र मे अपराध का वर्गीकरण इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना अपराधियों का, क्योकि समाजशास्त्रियों का अध्ययन-केन्द्र अपराध होकर अपराधी ही रहा है। अपराधों की तरह अपराधियों का वर्गीकरण भी कई विद्वान समाजश्ञास्त्रियो द्वारा अलग-अलग किया गया है।

सदरलेण्ड--सदरलंण्ड ने दो प्रकार के अपराधी बताये हैं--() साधारण या निम्न श्रेणी के अपराधी, तथा (2) सफेद-कालर या इवेतवस्त्रधारी अपराधी। सदरलूण्ड के अनुसार इ्वेतवस्तघारी अपराधी (छांप्राल-०णाआ धांग्रगर््) वह अपराधी है जो उच्च सामाजिक आथिक श्रेणी का सदस्य है और जो अपने व्यवसाय-सम्बन्धी कार्यों को करते हुए अपराध करता है ।# यहाँ 'उच्च सामाजिक आर्थिक स्तर' को केवल घन के आधार पर ही नही परन्तु समाज में प्रतिष्ठा के

38 5जाला370, छे, , बर$ त्र6-00व87 धांप्राह टां76 7), 4काररटका डम्टगेग्डॉलिन मष्यश०, छपी 945, 32-39. डे

अपराध और अपराधी 27

आधार पर भी परिभाषित किया गया है। इन अपराधियों का पता साधारण रूप से नही लग पाता बान्स और टीटसे के अनुसार इवेतवस्त्रधारी अपराधी वै हैं जो सन्देहपूर्ण आचार द्वारा व्यापारिक कार्य करते हैं किलवार्ड के अनुसार इवेत- वस्त्रधारी अपराध उस कानून का उल्लंघन है जो व्यापारी, पेशेवर लोग और राजनीतिज्ञों आदि जैसे समूहों द्वारा अपने व्यवसाय के सम्बन्ध में किया जाता है ॥7 इवेतवस्त्रधारा अपराध के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं--सावंजनिक पदाधिकारी द्वारा रिश्वत लेना, व्यापारिक लेन-देन में रिश्वत, गबन, प्रन्यास फण्ड (धए५ ६५70) का दुरुपयोग, कपटी दिवालियापन (कडाण्राध४ केध्यांतए/००5), तथा विज्ञापन अथवा बिक्री में असत्य तथ्य देना

सदरल्ैण्ड के अनुसार इवेतवस्त्रधारी अपराध से केवल अन्य अपराधों की अपेक्षा समाज को अधिक आशिक हानि होती है परन्तु इससे अविश्वास की भावना बढ़ती है, सार्वजनिक नैतिकता समाप्त होती है तथा सामाजिक विघटन उत्पन्न होता है

काल्डवैल, टैपन, जार्ज वोल्ड और कुछ अन्य विद्वानों ने सदरलैण्ड द्वारा दिये गये श्वेतवस्त्रधारी अपराध की आलोचना की है। काल्डर्वल का मुख्य तक॑ यह है कि सदरलैण्ड ने कोई निद्िचत लक्षण (णा/शा8) नही बताये हैं जिनके आधार पर अपराधी के वर्ग को मालूम किया जा सके और ही उसने निश्चित अपराधी-कार्य बताये है जिनके करने वालों की इवेतवस्थ्रधारी अपराधी माना जा सके ।? जाजे घोल्ड का कहना है कि इस (श्वेतवस्त्रधारी) अपराधी की धारणा इतनी अस्पष्ट है कि किसी अनुसन्धान के लिए वह स्वेथा निरथेक है ।?* टैपन का विचार है कि जब तक विद्वानों में इस घारणा के प्रति कोई सहमति पायी जाये, इसे कोई मान्यता ही नही देनी चाहिए क्योकि अस्पप्ट धारणाएँ कानूनी व्यवस्था और उस समाजजश्षास्त्र के लिए जो वैषयिक (०9]००४४८) होने का प्रयत्त कर रहा है यह एक कलक है ।*९

पलेबर्जण्डर झौर स्टाब--अलंवजण्डर और स्टाब ने दो प्रकार के अपराधी बताये हैं??-.(अ) आकस्मिक, और (व) दीर्घ स्थायी (लाग०0०)। आकस्मिक

2«ुहलाश$, ये, 7९., 878 फ्रशग८5, में, छ.,, अर झठारगभऊ 4 (/्रा/००2), शिव्णा।०5 प्रा, ।२, ४०7८, 959 (॥#70 ९४४७०४), 38-39.

3१48 शणेआता 89४ ०एणणांताल्वे छसंण्गा9 9५9 ए7/00ए5 5एशा 88. एचञे॥९55- गाहक, 9॥05$०७च्बी घादा बच #>णॉएपंटीशड 8 ९0776९॥०० णाी पोल॑र ००८०ए०ब४०75,7 एाएशथ्थ३, )॥7592] 8., 2॥० 870८८ 3#77०॥, सिंगधाबा: ब0व ९०., ४, ४०7८, 955, 29-30.

29 (309शी, रि. 5., ०9, ४४., 67-69.

9 /09, 56एणाह०, उमेट्मरटांट्य (कगांगगग2, 0ग्रजव. एग्राफ्शिञआंए | ए८८४५, उप, ४०7, 958, 250.

34 १९४३8४५९ 0०7०४७5$ 87० ए800 ७एछ/ लापीलट- स्‍(ल्डडवा $१४ाधाए 07 ३१डंधा 07 8०0०0089 एड 5धराएूड 9 9७९ 0ए|न्नात््ट. प्र8एए)30, 4कलाल्या उ०्लगगलव्दा कीटापशश, 8८0०. 3947, 98. हु +.०*

2 #०5874८० एच्एर बाएं प्रिी08० 50506, १776 टसकाह्ाँ, सिर रखे? डग्शार', ध्चए55... ठव्डणज़ 270०ण5, #ै4बस्ण्णा।डव 00., 7. ४०7६, 937, *

28 सामाजिक समस्‍्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

अपराधी वे है जो अलौकिक और अनोखी परिस्थितियों के कारण अपराध कर बैठते हैं; दीघंकालिक अपराधी वे हैं जिनका अपराध करना एक रोग-सा वन जाता है। इन दीघेस्थायी अपराधियों को तीन उप-सभूहों में विभाजित किया गया है-- (अ) सामान्य, (व) मानसिक दोप से पीड़ित तथा न्यूराटिक और (स) शारीरिक दोष से पीड़ित तथा पैथालाजीकल | सामान्य अपराधी के अपूराध का कारण सामाजिक है इसका अपराध अपराधियों से घनिष्टता तथा परिस्थितियों के कारण होता. है न्यूराटिक अपराधी के अपराध का कारण मनोवेज्ञानिक है। यह अपराधी भावनाओं और व्यक्तित्व-सम्बन्धी संघर्पों के कारण अपराध करता है। पैथालाजीकल अपराधी के अपराध का कारण शारीरिक है। वह शारीरिक अंगों की दशा अथवा शारीरिक दोप के कारण अपराध करता है। लोम्प्रोज्ञो--लोम्ब्ोजो ने चार प्रकार के अपराधी बताये है””---(क) जन्मजात अपराधी, (ख्) कामातुर (०५ 798५०) अपराधी, (ग) पागल अपराधी, और (घ) आकस्मिक अपराधी लोम्ब्ोज़ो के अनुसार जन्मजात अपराधी को कुछ विशेष शारीरिक लक्षणों से पहचाना जा सकता है, जैसे लम्बे कान, सिर का असाधारण आकार, चपटी नाक, उथला होंठ, बहुत बड़ी या छोटी और चौड़ी ठुड्‌डी, लम्बी बाहें, अस्त-व्यस्त मूँहू आदि जिस व्यक्ति में इनमे से पाँच गा अधिक शारीरिक दोष होगे वह लोम्ब्रोज़ो के अनुसार अवश्य अपराधी होगा। आजकल के समाज- द्ास्त्री जन्मजात अपराधी की धारणा को बिल्कुल नहीं मानते उनका कहना है कि कोई अपराधी केवल जन्‍म से वंशपरम्पराग्त पाये गये शारीरिक दोपो के कारण अपराधी नही हो सकता क्योंकि पर्यावरण का भी अपराध में महत्त्व है आकस्मिक अपराधी के लोम्ब्ोज़ो ने फिर तीन उपनप्रकार बताये हैं--- (क) मिथ्या (95०१०) अपराधी, - (ख) अभ्यस्त अपराधी, और (ग) क्रिमिनलायड अपराधी मिथ्या अपराधी का अपराघ किन्ही अनोखी परिस्थितियों, जैसे अपनी प्रतिप्ठा बचाने आदि के कारण होता है। यह अपराधी खतरनाक नही होता अभ्यस्त अपराधी यद्यपि प्रतिकूल पर्यावरण के कारण अपराध करने का अम्यस्त हो जाता है, इसमे पैतृक अपराधी लक्षण नहीं होते। क्रिमिनलायड (व्यागागरश०7) अपराधी में विघटन के चिह्न पाये जाते हैँ। इसमे कुछ ईमानदार व्यक्ति के और कुछ जन्मजात अपराधी के लक्षण होते हैं | लिन्डस्सिथ--लिन्डस्मिथ के अनुसार अपराधी दो प्रकार के होते हैं (4) सामाजिक, और (2) व्यक्तिवादीय (एक्‍शं4ए७॥६८०) व्यक्तिवादीय अपराधी अकेला ही अपराध करता है तथा वह अपराध से कोई श्रतिष्ठा श्राप्त नहीं करता। इसका अपराध किसी शिक्षण विधि के कारण नही किन्तु परिस्थिति के कारण होता

ज5 [0050 06532, ८//76, ॥3 (2४5८३ कार्वे अउश्वाल्वाटड, (तीर प0चए बाणव॑ (० 805000, 39]].. #50 5०८ (5००४० ४००१, ०7. ८॥/., 52.

बे 562$0079, ६९७ छे, 809 00छोगग7 १एद्राटए, से. उ०(व 407०५, ैैगण्क 4944, 307-74.

अपराध और अपराधी 29

है। सामाजिक अपराधी में निम्न लक्षण पाये जाते है--(क) उसका अपराधी व्यवहार सामाजिक वातावरण के कारण होता है। (स) साहस, वीरता और चतुराई से अपराध करने से उसे किसी अल्पसंख्यक समूह मे प्रतिष्ठा मिलती है। (ग) अपराधियों के सम्पर्क से वह किसी शिक्षा-विधि द्वारा अपराध सीखता' है। (घ) वह अन्य व्यक्तियों के साथ अपनी इच्छा से तथा जान-बुभकर अपराध करता है। रूथ कंवन--कैवन ने छः प्रकार के अपराधी बताये है?'*---(4) पेशेवर अपराधी; (2) वे अवराधी जो व्यवस्थित अपराध करते हैं; (3) वे अपराधी जो अनपराधी समूहों में रहते हैं; (4) अभ्यस्त अपराधी; (5) वे अपराधी णो बुरा चाहने वाले नहीं होते, ये बड़े समाज के नियमों का पालन तो करते हैं परन्तु कुछ अंवसरों पर छोटे समूहों के नियमों का उल्लघन करते है; (6) मानसिक रूप से विधेटित अपराधी इन अपराधियों का अपराध उनकी किसी मानसिक आवश्यकता की पूर्ति करता है। ऊपर दिये हुए छः प्रकार के अपराधियो में से पेशेवर अपराधी का विस्तृत विश्लेंपए आवश्यक है| किसी 'कार्य को पेशेवर बनाने के लिए तीन तत्त्व मुख्य होते है--अ्रशिक्षण, अभ्यास और एक विज्येप धारणा पेशेवर अपराधियों में यह तीनों लक्षण पाये जाते है। वे अपराध को एक व्यवसाय समभते हैं और अपराध ही उनकी आय का मुख्य साधन होता है। वे अपने आपको रूढ़िगत समाज का सदस्य कम और अपराधी समाज का सदस्य अधिक मानते हैं। अपराध उनका एक रहने का तरीका बन जाता है और इसी पर उनके जीवन के प्रति विभिन्न धारणाओं की रचता होती है। सेंघ लगाने वाला चोर, लुटेरा, डाकू, पाकेटमार आदि जो इन अपराधो को आजीविका का मुस्य साधन समभते है, पेशेवर अपराधियों के उदाहरण है | इत सबके अपराध में एक शिक्षण-विधि पायी जाती है जिससे थे उन समूहों से जो समाज के नियमीं का पालन करते हैं अपने आपको धीरे-धीरे प्रथक्‌ करके अपराधी समूहो के साथ एकीकृत करते हैं। रूढिवादी समूहों से “अलग होकर अपराधी समूहों के सदस्य बन जाने की प्रक्रिया शरने: झनें. होती है और इसी प्रक्रिया में वे जीवन के प्रति नये दाशं निक विचारों की रचना भी करते हैं; जैसे, मोटरकार दो स्थानों की दूरी कम करने के लिए नहीं अपितु अपराध के बाद भाग मिकटाने के लिए बनायी गयी है, मकान के दरवाजे-और खिड़कियाँ हवा के लिए नही परन्तु घर में छुपकर घुसने के लिए है, बुआ इसलिए बनता है जिससे व्यक्ति सभी चीजें एक हो जगह रखे ताकि पाकेटमार को उनके उड़ाने में आसानी हो वान्स और टीटर्स ने इन पेशेवर अपराधियों के दो प्रकार बताये हैं'*--एक वह जो परिस्थितियों के कारण नही परन्तु अपने व्यक्तित्व के दोषो के कारण-पेशेवर अपराधी वन जाते हैं और दूसरे

की मर (एफ रिषाध 5, ८]क्ाग॑गढछ, प्रगी०ए३$, ४. 070ण8), ), ४0०7४, 948, 0-32,

25 छ8072३3 ब्रधत वृल्टाटाउ, ०2. ८. 53-55,

30 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवतंन

वह जो परिस्थितियों के कारण असामाजिक विचार और घारणाओं की रचना करके अपराधी जीवन को अपनाते है केवन ने उत अपराधियों को जो अनपराधी समूहों में रहते हैं, चार उप समूहों मे विभाजित किया है”---(कु) सामयिक (८४४४४), (ख) आकस्मिक (००८4अं०7४), (ग) प्रासंगिक (८७५००४०)- अपराधी जो भावनात्मक तनाव की स्थिति में अधिकतर गम्भीर अपराध करते हैं और (घ) इवेतवस्त्रधारी अपराधी (शा०-ण्णाक्ष लाए) कंवन ने छ' प्रकार के अपराधियों के वर्गीकरण में तीन मापदण्डों को सम्मिलित किया है--() किये गये अपराधों की संख्या, (2) किये गये अपराधों की प्रकृति, और (3) अपराधी का व्यक्तित्व | इस वर्गोकरण में सबसे बड़ा दोष यह है कि एक प्रकार के अपराधी को दूसरे प्रकार के अपराधी से अलग नही किया जा सकता। उदाहरणाये, पेशेवर अपराधी और व्यवस्थित अपराधी के बीच इस कारण रेखा नहीं खीची जा सकती क्योकि कभी-कभी पेशेवर अपराधी भी व्यवस्थित ,अपराध करते हुए पाये जाते हैं इसी प्रकार सामयिक और आकस्मिक अपराधियों को भी एकः से अलग करना आसान नहीं है डेविड श्रग्नाह्मतेन--अव्राह्मसेन ने अपराधियों के वर्गीकरण में तीन बातों को आधार बनाया है--() अपराधी की पर्यावरण सम्बन्धी प्रृष्ठभूमि, (2) तत्कालीन परिस्थिति, और (3) व्यक्तित्व इस वर्गीकरण मे समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक तत्त्वों पर बल दिया गया है। इन तर्तंवों को चित्रित करने वाले तीन कारक हैं-- (क) संख्या एवं बारम्बारता (०१४०॥०७) अर्थात्‌ अपराधी ने पहला ,ही अपराध किया है या वह अभ्यस्त अपराधी है। (ख) समय का विस्तार (प्गा-०४०7) अर्थात्‌ दो अपराधों के बीच का समय (ग) अपराध की गम्भीरता ($९70057८85) इस आधार पर अन्वाह्मसेन ने मुख्यतः दो प्रकार के अपराध्री बताये हे”-.-() क्षणिक (770767(879) अपराधी जो असामाजिक मनोवेगों (॥700॥5८$) के कारण प्रलोभी परिस्थितियों मे .एक या दो वार अपराध करता है, और (2) दीघं-स्थायी (०॥०7॥०) अपराधी जो तीन या उससे अधिक बार अपराध करता है। क्षणिक अपराधी के उसने फिर तीन उप-प्रकार बताये हैं--(क) परिस्थिति सम्बन्धी अपराधी, (ख) सम्पर्क सम्बन्धी अपराधी, और (ग) आकस्मिक अपराधी | इसी, प्रकार दीघे-स्थायी अपराधियों के भी उसने तीन उप-श्रकार बताये हैं--(क) नाडी रोग से पीडित (7८ण०(०) अपराधी, (ख) मानसिक रोग से पीड़ित (959८0०४०) अपराधी, तथा (ग) मनोविकृत (95४०7०%शमं०) अपराधी विभिन्न विद्वानों द्वारा ऊपर दिये गये वर्गकिरणों को एकत्रित कर हम कह सकते हैं कि मुख्यतः पाँच प्रकार के अपराधी होते हैं--() प्रथम अपराधी,

24 (३४७0, सेघणी, ०79 ८8/-, 27. गा 0 एबी: मा 0 5008८ के: दम 375९0, 9433, 2#9ंगगर गण (फ्राक 3ण | सशाधफ 30:

अपराध और अपराधी 3

(2) आकस्मिक अपराधी, (3) पेशेवर अपराधी, (4) अभ्यस्त अपराधी और (5) ह्वेतवस्त्रधारी अपराधी

झपराध के कारणों के सिद्धान्त

अपराध के कारणों को समझाने के लिए बहुत से विद्वानों ने विभिन्न व्याख्याएँ और सिद्धान्त दिये हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के पहले चतुर्थ भाग के अन्त में सर्वप्रथम लोम्ब्रोज़ो, फेरी और गारोफैला ने अपराध का वैज्ञानिक विवरण दिया था। इससे पहले कुछ विचारको ने प्रेततादी और क्लासिकल सिंद्धान्तों के आधार पर अपराध को समझाने क्य प्रयल्ल किया था। लोम्ब्रोज़ो के बाद ही जैविकीय, मनोवैज्ञानिक, मनोविश्लेषणात्मक, भौगोलिक, समाजवादी, समाजश्ास्त्रीय तथा वहुकारकवादी सिद्धान्तों की रचना हुई। इन सबका हम अलग-अलग विश्लेषण करेंगे। * प्रेतवादी सिद्धा्त ([29070]0ह09 फ्रे८०:४)--अपराधी व्यवहार को समभाने का एक पुराना सिद्धान्त प्रेतवादी सिद्धान्त था। इस सिद्धान्त के अनुसार अपराध का मुख्य कारण है--'शेतान द्वारा भड़काया जाना (गराभांडरक्षाणा 0०शा) तथा 'प्रेतात्माओं का प्रभाव! (705505807 ४५ €शं| 5775) इस कारण अपराध को रोकने अपराधी के सुधार के लिए प्रेतात्माओ को प्रसन्न करना अथवा ऐसा दण्ड देना जिससे अपराधी की प्रेतात्माओं से मुक्त किया जा सके, आवश्यक है। यदि इन विधियों द्वारा अपराधी को सुघारा नही जा सकता त्व उसे मार देना चाहिए जिससे उसके परिवार और समुदाय को उसके और अधिक अत्याचारों (०७४३४८७) से रोका जा सके त्तथा उम्तकी पृत्यु से देवता और प्रेत्तात्मा को भी सन्तुष्ट शास्त किया जा सके यद्यपि प्रेतवाद में बहुत से सांस्कृतिक समूह अब भी विश्वास करते हैं परन्तु कोई भी अपराधझास्त्री इसे अपराध को समभाने का आधार स्वीकार नही करता वैज्ञानिक युग में इस अवैज्ञानिक मान्यता को (कि प्रेतात्माओं के प्रभाव के कारण व्यक्ति अपराध करते हैं) कोई नहीं मान सकता। अठारहवी घताब्दी में ही, जब अपराधी व्यवहार के क्लासिकल सिद्धान्त की रचना हुई, इस प्रेतवादी सिद्धान्त की मान्यता समाप्त हो गयी

वलासिकल सिद्धान्त--[0]989०47 ॥007५)--इस सिद्धान्त की रचना इटली के विद्वान्‌ बैकेरिया ने 764 मे की थी। इस सिद्धान्त का आधार उस समय प्रचलित 'स्वतन्त्र इच्छा' का विचार था जिसके अनुसार यह माना जाता था कि यधपि मूल प्रवृत्तियाँ व्यक्ति की इच्छा को प्रभावित कर सकती हैं परन्तु उसके असामान्य कार्यो में उसकी इच्छा स्वतन्त्र है और उसके व्यवहार को नियन्त्रित करने का प्रमुख साधन “भय है--विश्वेषकर पीड़ा या दुःख का भय इस कारण उसकी इच्छा को प्रभावित करने तथा व्यवहार को नियन्त्रित करने के लिए “मय उत्पन्न!» करने का तरीका स्वीकार किया गया ) बैकेरिया ने भी इस-विचार को म« कि मनुष्य के व्यवहार का आधार 'सुख-दुःख की भावना' माना। उसके अनुसार

दि सनक

32 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवत्तत

अपने जीवन को अधिक से अधिक सुखी बताने हेतु किसी क्रिया को करने से पहले ही उस क्रिया से भ्राप्त होने वाले सुख और दुःख को माप कर लेता है और वही कार्य करता है जो उस्ते अधिक सुख देता है चाहे वह काये अपराध ही क्यों हो+ वैकेरिया ने उस समय मान्यता प्राप्त रूसो (70०5४०४०) के समाज की उत्पत्ति और विकास के 'सामाजिक समझौते” के सिद्धान्त को भी अपराध को समभाने का आधार बनाया। उसका विचार था कि हर व्यक्ति को इस समभौते के विरुद्ध कार्य करने उसे खत्म करने की प्रवृत्ति या भुकाव होता है जिसके कारण वह सोमाजिक संविदा के विरुद्ध कार्य करता है। इन्ही कार्यों को समाज 'अपराध' मानता है और इनकी रोकने के लिए दण्ड की व्यवस्था करता है इस तरह अपराधी व्यवहार के प्रति बैकेरिया की मूल धारणा यह थी कि व्यक्ति तके द्वारा पथ-अ्रदर्शित होता है, उसकी इच्छा स्वतन्त्र है और इसलिए वही अपने सभी कार्यों के लिए उत्तरदायी है। उसके व्यवहार के नियन्त्रण के लिए दण्ड का भय आवश्यक है। वह यह भी मानता था कि अपराधी काये के लिए निर्धारित दण्ड का “दुःख” उस कारें के 'सुख' से अधिक होना चाहिए तथा दण्ड स्बेमान्य रीति से, शीघ्रता से अपराध के अनुपात से देना चाहिए। उसके अनुसार दण्ड देने का अधिकार केवल समाज को ही है। समाज विधान-मण्डल के द्वारा अधिनियम वनाकर इस दण्ड को पहले से ही निर्धारित करता है न्यायालय का कतंव्य केवल इन कानूनों की व्यास्या केरना है और कि नये कानून बनाना ।/* दण्ड के माप का आधार जन-कल्याण को पहुँचायो गयी हानि होता चाहिए अथवा दूसरे शब्दों में, दण्ड का आधार अपराध का उद्देश्य होकर कार्य (2०0) होता चाहिए इस प्रकार वैकेरिया अपराधी को पीड़ा और प्राण-दण्ड देते कै वित्कुल विरुद्ध था। इन सव विचारों को लेकर हम संलेप में यह कह सकते हैं कि क्लासिकल सिद्धान्त के चार मुख्य तत्त्व थे--- कि हु . व्यक्ति के अधिकार और स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिए 2. सब व्यक्ति क्योंकि समान हैं अतः एक ही प्रकार के अपराध करने वाले हु अपराधियों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए। : 3. हर अपराध के लिए कुछ निश्चित निर्धारित दण्ड विना किसी भेद-भाव के हर अपराधी को मिलना चाहिए। 4. दण्ड को प्रतिरोघात्मक प्रभाव के सामाजिक आवश्यकता के आधार पर सीमित होना चाहिए 3 निषोयलासिकल सिद्धान्त (४८०-८४५अत्य ॥607५/)--अनुमभव के आधार पर बैकेरिया के विचारों को व्यावहारिक रूप देना सम्मव नहीं पाया गया। उसके मिद्धास्त में कुछ कठिनाइयों थीं है () क्लासिकल सिद्धान्त प्रथम और अभ्यम्त अपराधियों में कोई अन्तर का 3० [८प८७799. (-एडय6, टडातज उन. टन ब्ार्व कफ्रोडीफर्, जव्रव 00ण१; ४. ४०४६, १809, ॥-32.

अपराध और अपराधी 33

स्वीकार नहों करता था

(2) इसमें दण्ड का आधार अपराधी का व्यक्तित्व ने मानकर उसका अपराधी-कार्य भाना गया था

(3) असहाय और असमर्थ व्यक्ति जैसे वच्चे, दुद्धोधोन और पागल को भी अपराध करने के योग्य समझा गया

इन दोपों के कारण इस सिद्धान्त में परिवर्तत की आवश्यकता मानकर नियोवलासिकल सम्प्रदाय की रचना की गयी यद्यपि इस सम्प्रदाय के मूल विचार बलासिकल सम्प्रदाय से भिन्न नहीं ये तथा दोनों स्वतन्त्र इच्छा, हेतुवाद, पूर्ण उत्तरदायित्व और सुखवाद में विश्वास करते थे परन्तु फिर भी दोनों सम्प्रदायों में कुछ अन्तर था। नियो-क्लासिकल सिद्धान्त के तीन मूल लक्षण थे---

(() ध्यक्ति की इच्छा उसके पांगलपन, कम आयु और शारीरिक, मानसिक परिस्थिति-सम्बन्धी व्यवस्था द्वारा प्रमावित हो सकती है जिससे वह अपनी स्वतन्त्र इच्चा का प्रयोग नहीं करता

(2) न्यायालय को अपराधी को दण्ड देने से पहले उसकी मानसिक स्थिति मासूम करनी चाहिए अर्थात्‌ यह ज्ञात होता चाहिए कि बमा वह उचित और अनुचित कार्यों में अन्तर मालूम करने के योग्य है अथवा नहीं !

(3) ऐसे असहाय और असमर्थ व्यक्तियों को दण्ड देने में दयावान होना चाहिए

परन्तु क्लासिकल की तरह नियो-कलासिकल सम्प्रदाय में भी कुछ दीप थे, जैसे, (क) दोनों में अपराधी को नही अपितु अपराघ को केन्द्र-विन्दु माना गया है, तथा (स्तर) व्यक्ति के व्यवहार में तक के कार्य को बहुत बढ़ाकर उसकी आदतों, संवेगों और सामाजिक वत्त्वों को कम महत्त्व दिया गया है। इन दोपों के कारण इस सिद्धान्त को भी विद्वानों द्वारा कोई मान्यता ने मिल सकी

जैविकोय सम्प्रदाय (छ00ट/०2 ३०४००)

लोम्बोजो का सिद्धान्त [.णर07050'5 घाध०णा9)--876 में इटली के प्रोफेसर लोम्ब्रोज्ो ने अपनी पुस्तक टप्रंणांगर्श (४7 ' में जन्मजात अपराधी” अथवा शारीरिक रूप से व्यक्त अपराधी प्रारूप” का सिद्धान्त दिया इसको धारणा यह थी कि एक लाक्षणिक अपरांधी को कुछ विश्वेष शारीरिक लक्षणों या दोपों से पहचाना जा सकता है ! एक कुख्यात अपराधी विलेल!। के शव की परीक्षा से उसे उसमें 'मानव विकास में पूर्व विकास की अवस्था (ाक्वशेआा) का प्रमाण मिला। अन्य अपराधियों मे भी इसी प्रकार का प्रमाण मिलने पर उसने अपराध के कारण में धुवे-विकास की ओर लौटने का सिद्धान्त दिया जिसके अनुसार उसने अपराध और व्यक्तित्व के विघटन में घनिष्ठ सम्बन्ध बताया दुसरे शब्दों में व्यक्ति के अपराधी व्यवहार का कारण उसने उसके वंदानुक्रमण द्वारा प्राप्त शारीरिक और मानसिक लक्षण बताये उसका कहना था कि अपराधी लंगूर जैसे उद्विकामी पुरवेजसे मिलता-जुलता है और उसके अपराधी व्यवहार के दोष इन्ही पहले की उद्विक्रासी

34 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

अवस्था के होते हैं ऐसे कुछ जन्म द्वारा प्राप्त दोष जो अद्धं-विकमित व्यक्ति में (जो अपराधी बन जाता है) पाये जाते है वे हैं--असाधारण आकार का सिर, अस्त-व्यस्त मुंह या ललाट, लम्बे कान, चपटी नाक, उथला होंठ, बहुत बड़ी या छोटी गौर लगूरों में पायी जाने वाली जैसे ठुड्डी, हाथों की बहुत अधिक लम्बाई आदि | इटली में किये गये 383 अपराधियों के एक अध्ययन में उसने पाया कि 2 प्रतिशत अपराधियों में उपर्युक्त शारीरिक दोषों में से केवल एक ही। दोष था तथा 43 प्रतिशत में पाँच या उससे अधिक दोष थे इसलिए उसने कम से कम पांच शारीरिक दोप पाये जाने वाले व्यक्ति को 'जन्मजात' अपराधी माना ।? - परन्तु कुछ विद्वानों ने अपराधियों और अनपराधियों का तुलनात्मक अध्ययन करके लोम्ब्रोज़ो के सिद्धान्त को असत्त्य प्रमाणित किया लोम्ब्रोज़ो ने भी स्वयं अपने जीवन के अन्तिम वर्षो मे अपने सिद्धान्त में कुछ संशोधन करके यह बताया कि सभी अपराधी नही परन्तु केवल कुछ ही व्यक्ति जन्म से अपराधी होते हैं। कुछ ऐसे भी | (अपराधी) होते हैं जो मनोविकार या पागलपन के कारण अथवा कुछ अनोखी परिस्थितियों के कारण अपराध करते है इस तरह उसने वंशानुक्रमण के ख्तिरिक्त भौगोलिक कारक (जैसे जलवायु, वर्षा आदि)) सामाजिक कारक (जैसे विवाह की रीतियाँ, अपराधी कानून आदि)। आधिक कारक (जैसे अन्न मूल्य, वेक के नियम, राष्ट्रीय-कर नीति आदि); तथा घामिक विचार आदि को भी अपराध के कारणो में महत्त्व दिया | यद्यपि आज के समाजशास्त्री उसके जन्मजात अपराधी के सिद्धान्त को नही मानते परन्तु यह सभी स्वीकार करते है कि लोम्ब्रोज़ो ने ही सर्वप्रथम वैज्ञानिक आधार पर अपराध को समभाने का प्रयत्व किया था। इस कारण इसके सिद्धान्त को अपराधझास्त्र का पॉजिटिव सम्प्रदाय (छ०आएए८ ध्णा००0 07ं॥॥0099) भी माना जाता है इटली के विद्वानू फेरी और गारोफ॑लो ने भी लोम्ब्रोजो के सिद्धान्त के मूल तत्त्वों का समर्थन किया था | क्योकि यह दोनो विद्वानु भो लोम्ब्रोज़ो की तरह इटली के रहने वाले ये, इस सम्प्रदाय को 'इटालियन सम्प्रदाय! भो कहा जाता है फेरी ने 884 में अपराध के चार कारणो--भोगोलिक, सामाजिक, आधिक और मानवश्ञास्त्रीय--के पारस्परिक सम्बन्ध पर बल दिया था। भौगोलिक कारणों के अन्तर्गत उसने जलवायु, तापक्रम, ऋतु-सम्बन्धी प्रभाव, भौगोलिक स्थान आदि कारक; सामाजिक कारणों में जनसंख्या का घनत्व, रीति-रिवाज, धर्म और राज्य का संगठन आदि कारक और मानवश्यास्त्रीय कारणों में प्रजाति, आयु, लिग, शारीरिक और मनोवेज्ञानिक अवस्था आदि कारक बताये उसके अनुसार सामाजिक और आशिक सुधार जैसे मुक्त-व्यापार, एकाधिकार को समाप्त करना, परिवार नियोजन, विवाह और तलाक की स्वतन्त्रता आदि के द्वारा ही राज्य उचित वातावरण निर्मित करके अपराघ को रोक सकता है

पु

34003 33 (मी की टन अप 3० (५८०४८ ४०१०, ०. थ॥., 52.

अपराध और अपराधी 35

गारोफैलो द्वार 885 में दिये गये अपराध के कारणों में जँविकीय अभिमुखता से अधिक मनोवैज्ञानिक अभिमुखता मिलती है। उसने अपराध को दया और सत्यता के मनोभावों या नैतिक सच्चाई अयवा ईमानदारी का उल्लंघन बताया। उसके अनुसार उसकी विचारधारा अपराधी-मानवश्यास्त्र का अंग तभी मानी जा सकेगी जब अपराधी-मनोविज्ञान को अपराधी-मानवश्ञास्त्र का एक भाग समझा ज़ाये अपराध को रोकने के लिए उसने उन व्यक्तियों को खत्म करने था हठाने की आवश्यकता बताई जिनका समाज में समायोजन नहीं हो पाता अपराधी को ख़त्म करने या हटाने के लिए उसने तीन तरीके बताये*”--- (अ) उन अपराधियों के लिए उसने मृत्यु-दण्ड का सुकाव दिया जो हमेशा के लिए सामाजिक जीवन के लिए अयोग्य हैं। (व) युवा और आश्याहीन अपराधियों के लिए उसये आशिक लोप जैसे जीवन भर के लिए अथवा बहुत लम्बा कारावास तथा देश-निप्कासन का सुझाव दिया (स) उनके लिए जिन्होने अनोखी परिस्थितियों, (जिनके फिर से उत्पन्न होने की सम्भावना कम है) के दवाव के कारण अपराघ किया है, उसने शक्ति द्वारा हर्जाना प्राप्त करने का सुझाव दिया

गारोफैलो द्वारा दिये गये इन सुझावों से यह सिद्ध होता है कि वह प्राण-दण्ड के पक्ष में था। परन्तु उसके “नैतिक दोष जैसे मनोवैज्ञानिक विधटन” की उपकल्पना को समाजशास्त्रियों ने स्वीकार नहीं किया है।

चास्स गोरिंग ने लीम्ब्रीज़ों.के 'शारीरिक रूप से व्यक्त अपराधी के प्रारूप! (9४ंधथ धयायांग॥ ६9०) के सिद्धान्त की तीन्र आलोचना की है। !2 साल तक

3000 अपराधियो के अध्ययन के आधार पर 93 में उसने अपने निष्कर्ष प्रकाशित किये जिनमें उसने बताया कि विभिन्न प्रकार के अपराधियों के आपस में तथा अपराधियों के अनपराधियों के साथ तुलनात्मक अध्ययन से किसी भी प्रकार से इस तथ्य की पुष्टि नही होती कि शारीरिक रूप से व्यक्त अपराधी के प्रारूप जैसी वस्तु सम्भव हो सकती है!

शारीरिक बनावट का सम्प्रदाय या नियो-लोम्ब्रोज्यन सम्प्रदाय

लोम्ब्रीज़ो के जेविकीय सम्प्रदाय के वाद दयारीरिक बनावट के सम्प्रदाय का विकास हुआ जिसके अनुसार व्यक्ति को अपराधी कार्य के लिए प्रोत्साहित करने वाले कारक सामाजिक परिस्थितियो मे पाये जाने वाले विध्न-कारक नही हैं परन्तु वंशानुक्रमण सम्बन्धी कारक हैं। हुट्टन, शेलडन आदि इस सम्प्रदाय को मानने वाले विद्वान्‌ हैं

हूट्टन का सिद्धान्त (०००5 ४6०9)--हूट्नन ने चाल्से ग्रौरिंग के अध्ययन को अवेज्ञानिक और पक्षपाती बताया | उसने स्वयं !3,873 पुरुष अपराधी

3० (050, €रंग्र/ं7००६५१, कर. 2। , 370-408, (30ज9छ8, एड85, पक एग205 एजरशसंल), कल्व॑हण 277040०5, 06९. 955.

36 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

(कैदी) 3,203 पुरुष अनपराधियों को 929 से 939 तक 0 वर्षों की अवधि में अध्ययन किया अनपराधियों में 976 स्वस्थ और निरोग व्यक्ति (विद्यार्थी, आग बुभाने वाले व्यक्ति आदि) और 227 मानसिक रोग से पीड़ित व्यक्ति ये इस अध्ययन के निष्कर्पों के आधार पर 939 में उसने यह बताया कि अपराध का मुख्य कारण पैतृक शारोरिक-हीनता या निम्नता (90०हांप्थी ्रध्मिण्याज) है | शारीरिक रूप से कमजोर ध्यक्ति अपने आपको प्रतियोगीय समाज में समायोजन में असमर्थ पाते हैं जिसके परिणामस्वरूप वे असामाजिक कार्य अर्थात्‌ अपराध कर बैठते हैं। उसने यह भी पाया कि सभी अपराधियों की शारीरिक विशेषताएं, जो शारीरिक-ही नता या निम्नता का एक निश्चित प्रतिमान वनाती है, अनपराधियों की शारीरिक विद्येपताओ से भिन्न है। उसके अनुसार हर प्रजाति में कुछ प्रतिभाशाली व्यक्ति, मध्यम श्रेणी के व्यक्तियों के भुण्ड (807068), दुरदंल बुद्धि वाले व्यक्तियों के ढेर (700855७), तथा अपराधियों की पल्टन (7६87/०/(5) पायी जाती है। दुसरे शब्दों में हर समाज में बहुत से अपराधी पाये जाते हैं और ये सभी झारीरिक रूप से हीत॑ व्यक्ति ही होते हैं। इन शारीरिक हीन व्यक्तियों के उसने तीन प्रकार बताये हैं-- (अ) भसंयोजनीय अंगों वाले व्यक्ति (०९27/०८०॥५ एा४099/80॥०), (व) मानसिक एवं शारीरिक रूप से बोने व्यक्ति (गदर शत फामंण्शीए शण्जाबत), और (स) सामाजिक रूप से बिकृत पुरुष (5०ल००हादक्षीए छद्यए०0 एशफशार्प्स) अपराध को रोकने के लिए हूट्न ने इन शारीरिक, मानसिक और नैतिक

दोपपूर्ण व्यक्तियों के वन्ध्याकरण (आध्या$400०॥) करने का सुझाव दिया गिसके

परिणामस्वरूप एक अच्छी प्रजाति पंदा हो सके और अपराध को कम किया जा

सके ही

अन्य जीवश्मास्त्र के विद्वानों की तरह हुद्दत के सिद्धान्त की भी सदरलैण्ड, जाजें बोल्ड, रमूटर और मंकारमिक आदि अपराधशास्तरियों ने आसोचना की है।* इसके विश्द उन्होंने निम्न तर्क दिये हैं---

() हुट्टन द्वारा अध्ययन किये गये अपराधियों अनपराधियों का घुनावे सभी अपराधियों और अनपराधियों का प्रतिनिधित्व नहीं था क्योकि अनपराधियों में उसने पुतिम और मिलेट्रो के कमंथारी, आग बुमाने वाले व्यक्ति, तैराकी, तथा विदावियों आदि को लिया जो अधिकतर स्वस्थ और शक्तिशाली स्यक्ति होते हैं। इसी प्रकार बेवल केदी हो सभी अपराधियों का प्रतिनिधित्व नहीं फरते कयोक्ि जैठी के पाहर भी अपराधी पाये जाते हैं जिनयो या तो परिवीक्षा (छ०0शॉा०णा) पर

४४ १(0200च-. >िरा5$ ै.. (006 0 हट उक्त, एऐउक्राफतंटडट, ववन्‍ा्ा५ (फॉर: ४५ ॥997.

7+ ९७७३ (८०१४० ०7. ८, 63-6$ ; रच्णावह, 2. 9... क्‍लन्‍हॉट्ल ऑन्फरवां था. उजरा>/ कह, घातक 4793: 5ए्रैशस्‍उकड, उठ्हगर (फी्डक्यो (२ 2१ (५ नाजिलल्टी,

फिल्टर क्र 4992,. ग्रा-व4 ; $३४ए४८६८६; 7. ए. 4रवथत उज्टाॉगेल्ट/ट्स फिलारण, 4940.

अपराध और अपराधी 37

छोड़ा जाता है या जुर्माना आदि किया जाता है तथा इनका व्यक्तित्व, अपराध की प्रकृति, आदि कंदियों से भिन्न होती है (2) उसने यह नहीं समझाया कि शारीरिक और मानसिक दोष केसे हीतता पैदा करते हैं। (3) सामाजिक रूप से विक्वत व्यक्ति शारीरिक रूप से हौन नही होते (4) उसने श्वेतवस्त्रधारी अपराधियों पर बिल्कुल घ्यान नही दिया जिनको किसी प्रकार भी झारीरिक रूप से हीन नहीं माना जा सकता (5) उसको अनुसन्धान-प्रणाली भी दोषपूर्ण थी उसने अपराधियों से साक्षात्कार के समय के अपराध को आधार मानकर बिना उनके पूर्व अपराधों के अध्ययन के अपराधियों की कुछ श्रेणियाँ (०४४८४०7६४) विकसित की उदाहरणार्थ, उसने लम्बे दुरबंल व्यक्ति हत्यारे लुटेरे, लम्बे और भारी व्यक्ति जालसाज और चालवाज, छोटे कद के दुबले व्यक्ति चोर और सेंघ लगाने वाले, छोटे कद के भारी व्यक्ति आक्रमणकारी यौन अपराधी बताये तथा मध्यम शरीर वालो के लिए उसने बताया कि वे कोई विज्येप अपराध नही करते | यदि हूट्नन अपराधियों के पूर्व अभिलेस (76०००) का विश्लेषण करता--क्योकि उसके प्रतिरूप में लगभग आधे अपराधियों के पूर्व-दण्ड का अभिलेख था--तो सम्भवतया ये अपराधी श्रेणियाँ सत्य नही निकलती जैविकोय सम्प्रदाय का सुल्यांकन---अन्त में जैविकीय सम्प्रदाय का, जिसके अन्तर्गत लोम्ब्रोज्जो, चार््स गोरिग, हृट्दन, गाल, शेलडन आदि के सिद्धान्त आते हैं. मूल्याकन' करते हुए हम जैविकीय कारकों और अपराध के सम्बन्ध मे निम्न तक दे सकते है-- ' (2) हूट्टनन, शेलडन आदि विद्वान अपराधी-व्यवहार और शारीरिक लक्षणों के सम्बन्ध को पूर्ण रूप से सिद्ध नहीं कर पाये है (2) सभी विचारकों के सिद्धान्तो में सास्कृतिक पृष्ठभूमि की अवहेलना की ग़यी है अथवा उसका महत्त्व बहुत कम माना गया है। (3) यह सभी अध्ययन कुछ विश्लेष चुने हुए समूहों को लेकर किये ग्रये है जो सम्पूर्ण जनसंख्या का प्रतिनिधित्व नहीं करते » * . «५।+ इन तर्कों के आधार पर हम कह सकते है कि जेंविकीय सिद्धान्तों को आजकल विद्या-सम्बन्धी (४०७०८४८) मूल्य से अधिक महत्त्व नहीं दिया जा सकता यद्यपि इसका एक महत्त्व 'यह अवश्य है कि ' पहली बार वैज्ञानिक हप्टिकोण से इन्होने यह सिद्ध करने का प्रयत्व किया कि अपराधी-व्यवहार को समभने फे लिए अपरांधी व्यक्ति का अध्ययन करनों ही अत्यन्त आवश्यक है। इनके पहले इसकी आवश्यकता नहीं समभी जाती थी हे मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त (?89०४०008/०८० प्रश७०7७)--गोडार्ड मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त का प्रतिपादक माना जाता है। 99 में दिये गये इस सिद्धान्त के अनुसार कमजोर बुद्धि अथवा मानसिक दुर्वलता अपराध का प्रमुख कारंण हैं।

38 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

गोडा् ने भन्द-बुद्धि की सर्वोच्च सीमा निर्धारण के लिए 2 वर्ष की मानसिक आयु ली तथा 75 से कम बुद्धि-लब्घ (-8) वाले व्यक्ति को बुद्धहीन बताया। गोडार्ड ने इस सिद्धान्त की व्यास्या इस प्रकार की है+--

(।) लगभग सभी अपराधी मन्द-वुद्धि वाले ब्यक्ति होते हैं।

(2) मानसिक दुर्वलता आनुवंशिक होती है तथा यह संचरण मेन्डल के प्रबल एवं भौण वाहकाणु के सिद्धान्त के अनुसार होता है।

(3) मानसिक रूप से दुर्वल व्यक्ति विशेष नियन्त्रण के अभाव में अपराध करते हैं क्योकि एक तो उनकी पर्याप्त बुद्धि नही होती जिससे वे कानुन की आवश्यकता को परख सके और दूसरे वे कानून के उल्लंघत-परिणाम को समझ नही सकते

(4) अपराध को रोकने और अपराधियों को सुधारने के लिए दो ही प्रभाव- शालो तरीके हैँ---एक जीवाणुधात की नीति और दूसरा कमजोर बुद्धि वाले व्यक्तियों का पृथक्करण

4928-29 में सदरलंण्ड ने विभिन्न वौद्धिक स्तर के माप के अध्ययनों का विश्लेपण करके अपराध और दुर्वल बुद्धि के बीच सम्बन्ध का अध्ययन किया उसने 350 प्रतिवेदनों की, जिनमे कुल पौने दो लाख अपराधियों और बाल-अपराधियों का अध्ययन हुआ था, परीक्षा की इस विद्लेषण से उसे ये निष्कर्ष मिले--

() 90-(4 के मध्य से अध्ययन किये गये अपराधियों में से 50 प्रतिशत मन्द बुद्धि के व्यक्ति पाये गये थे जबकि 925-28 के मध्य में किये गये अपराधियों के अध्ययन में केवल दीस प्रतिशत ही क्रमजोर बुद्धि वाले मिले

(2) अपराधियो का बौद्धिक स्तर सामान्य व्यक्तियो के वौद्धिक स्तर जैसा ही था। दूसरे शब्दों मे अपराधियों को उतना ही बुद्धिमान पाया गया जितता कानून को मानने वाले व्यक्ति बुद्धिमान थे

(3) सम्राज मे दु्वेल व्यक्तियों को सामान्य जनसंख्या की तुलना मे अधिक अपराधी नही पाया गया

(4) दुर्वेल बुद्धि वाले कंदियों में सामान्य बुद्धि वाले' कैदियों के समान अनुशासन पाया गया।

(5) पैरोल (9०७) पर छोडे गये दुर्वंल बुद्धि वाले अपराधी उतने ही सफल याये गये जितने परोल पर छोड़े गये सामान्य बुद्धि वाले अपराधी ।[#

इन अध्ययनों से यह सिद्ध होता है कि मन्द बुद्धि ही अपराध का प्रमुख कारण नही हो सकती भारत में ही बहुत से ऐसे अपराधी मिलते है जो सामान्य व्यक्तियों को अपेक्षा अधिक बुद्धिमान पाये गये हे मर्चीसन, रेक्लेस, हीले आदि ने

भी गोडार्ड के सिद्धान्त क्री आलोचना की है। रेक्लेस का कहना है कि अपराधी वर्गे बहुत मागरिकों की तुलना मे अधिक बुद्धिमान होता है। हीले ने भी बास्टन और

(503630, पर. घ., मं#लवा ऊ.कीलंलादा बाबे 7.९हरत थी उक्ल[हशा८०, एत0८९००

प्रशार, छ६55, 920, 73-74. # इपॉमलाबगएं, 22. 2६. 48.

अपराध और अपराधी 39

शिकागो में चार हजार अभ्यस्त अपराधियों के अध्ययन में पाया कि 72:5 प्रतिशत अपराधी मानसिक रूप से सामान्य थे और केवल 3-5 प्रतिशत अपराधों ही मन्द बुद्धि के थे इस आधार पर उसने कहा कि हम यह नहीं मान सकते कि अपराध कैवल दुबल बुद्धि वाले व्यक्तियों में ही पाया जाता है। अधिक से अधिक हम यह कह सकते है कि मानसिक रूप से दु्बल व्यक्ति सामान्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक गम्भीर अपराध करते है ॥१* सनोविकार विश्लेषण का सिद्धात्त (?8/वंहांगापाट ए6०णा७)--गोडार्ड की आलोचना करके हीले और ब्रानर ने स्वयं अपराध का एक दूसरा कारण बताया। उनके अनुसार सवेगात्मक व्याकुलता और नैराश्य के कारण ही अपराध होता है यद्यपि कुछ समाजशास्त्री भी अपराध का एक कारण नेराश्य मानते हैं परन्तु उनके अनुसार व्यक्ति का नैराइय एक सामाजिक घटना' है जबकि हीले और ब्रानर आदि मानसिक रोग विशेषज्ञों के अनुसार यह एक 'जेविकीय घटना' है| हीले का कहना है कि व्यक्ति का नैराश्य संवेगात्मक व्याकुलता पैदा करता है। व्यक्तित्व का सामंजस्य इस पीड़ा को दूर करना चाहता है और पीड़ा प्रतिस्थापन्न (57050॥7(०) व्यवहार से दूर को जाती है। यह प्रतिस्थापन्न व्यवहार अपराध होता है ।*? व्यक्तित्व का विकास तभी सम्भव है जब व्यक्ति किसी बाधा का सामना करे यदि उसके साममे कई वाधाएं जाती हैं और वह उनको दूर नहीं कर पाता तो बह निराश हो जाता है। यह नैराइय उसमे पीड़ा उत्पन्न करता है। इस पीड़ा को हटाने के लिए वह किसी प्रतिस्थापन्न व्यवहार द्वारा प्रथत्व करता है. और यह प्रतिस्थापन्न व्यवहार अपराध होता है। व्यक्तित्व का विकास->रुका वर्टें->नै राश्य -> पीड़ा -+ प्रतिस्पापन्न ध्यवह्वार-> अपराध मनोंविश्लेषणात्मक सिद्धान्त की मुस्य घारणा यह है कि किसी विशेष प्रकार का व्यक्तित्व अवश्य या सम्भवतः अपराध करेगा चाहे उसकी सामाजिक परिस्थितियाँ कैसी भी हों अपराधी व्यवहार व्यक्तित्व का एक आवश्यक प्रकटन (०५७४९४४»०7) है। हीले और ब्रानर के इस सिद्धान्त की भी सदरलंण्ड, रेक्‍्लेस, केवन आदि ने आलोचना की है। रेक्लेस का कहना है कि किसी भी व्यक्ति के लिए गैरकानूनी अपराधी व्यवहार में कानूत-मान्य व्यवहार की तुलना में संवेगात्मक व्याकुलता और अन्य दोष पाना आसान है ॥* मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त (259080-थ०व५धं०्या ॥8079)--इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति दलित इच्छाओं और वासनाओं का भण्डार है। इनको 'इड' (0) ३१ उुृल्याज, भशावंबाए, बछपए छात्याहा, 8. 6., अक्त 779#7 रत 702//पर्कट्ड बाय. (75 प्राह््ा/शिटाा, ४3९ ऐगार, शिच5७ फरेंटए घ3४८७, 936, 7 नवफ्राबपंत्प ती धर ॥कक्‍्शंवएन स्व0४९३४ ध्याणंंणयश त5०एचराए8 फशइणाव- गए व्यणाँनंएक कशगशातं3 हलाा०ध्ब) जी 5एणे फुंग ४० कमा $ चएशाल्त 8५

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> [२९८०४८5५, १४३८८ पृष्णव्व 0७५ रण 60०56 49 उ##०८६४८०४ ८7(काण॑गए३, ०, ता,

40 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

कहते है यह क्र र, परपीडक विनाशक प्रवृत्तियाँ (इड) सीखी नहीं जाती पर वैसे ही हर व्यक्ति मे पायी जाती हैं। इसका एकमात्र उद्देश्य काम-तृष्ति करना है और यह उन्ही क्रियाओं के पक्ष में रहता है जो काम-तृप्ति की ओर ले जाती हैं। हम जैसे-जैसे बडे होते जाते है समाजीकरण की प्रतिक्रिया द्वारा इन इड से उत्पन्न हुई दलित इच्छाओ पर नियन्त्रण करना सीखते जाते हैं यह नियन्त्रण 'इगो” (८४०) या 'अह' और 'सुपर-इगो' (४एए८-८४०) या “नैतिक मन कहलाते हैं। “इगो' वास्तविकता को समझाने को एक झावक्ति है और सुपर-इगो हमारी “चेतना” अथवा अन्तरात्मा की आवाज है जब हम सामाजिक नियमों का पालन करते हैं तव यह सिद्ध होता है कि हमारा अहं और नैतिक मन विकसित हो चुके है परन्तु इन नियमों का उल्लंघन करना अहं और नैतिक मन का अविकसित या कमजोर होना प्रकट करते हैं ।* जब इड, इगो और सुपर-इगो के वीच असाधित (ए४५०४८५) संघर्ष बढ़ते जाते है तथा सुपर-इगो इड को नियन्त्रित नही कर पाता सच व्यक्ति अपराधी व्यवहार करता है | इस सिद्धान्त के प्रति समाजशास्त्रियों की यह्‌ आलोचना है कि इसमें अपराध करने की प्रवृत्ति को “दिया हुआ' माना गया है जबकि यह्‌ एक 'सीखी हुई प्रवृत्ति/ है मर्टन, सदरलैण्ड, कोहेन, कैवेन, क्लोवार्ड, क्लिनाड आदि समाजशास्त्री अपराध को 'सीखा हुआ व्यवहार' मानते है। भौगोलिक सिद्धान्त (96०0ह4फकआऑंप्श 0 (थाण्ड्राग्श० ॥609)-- क्रोपोट्किन, क्वीटले, मांटेस्क्यू, डेक्स्टर आदि इस सिद्धान्त के समर्थक हैं। इनका कहना है कि जलवायु, तापमान, आद्रेत्ता अथवा हवा में पानी की मिलावट, स्थान' आदि मनुष्य के व्यवहार पर बहुत प्रभाव डालते है। 93 में रूस के विद्वानु पीटर क्रोपोट्किन मे कहा कि किसी भी समाज मे हम तापमापी उन्दमान का प्रयोग करके वहाँ के एक बर्ष के आँकड़ों के आधार पर आइचर्यजनक यथार्थता के साथ उसके दूसरे वर्ष में अपराधो की संख्या की भविष्यवाणी कर सकते है। इस भविष्य- वाणी के लिए जो उसने सूत्र प्रतिपादित किया, वह है : 2(7<+-») ॥४? यहाँ तापमान है और (9 आद्रता अथवा हवा में पानी की मिलावट है। एक माह के' औसत तापमान को प्राप्त कर उसको सात गुणा करके उसमे औसत आद्रेता जोड़कर उसको फिर दो से ग्रुणा करने से हमें उस माह मे होने वाली नर-हत्याओं (80णंशं(०४) की संख्या मिलेगी परन्तु क्रोपोट्किन के विचार के विरुद्ध यह तर्क दिया जाता है कि इस सूत्र (गए) द्वारा अपराध की संख्या माल्कुम करना असम्भव है जलवायु का अध्ययन करने वालो ने फिर मार्च-अप्रैल मे सबसे अधिक यौन अपराधो को वसन्त-ऋतु मे बढने वाली काम-तृप्ति की इच्छा से सम्बन्धित किया # 5प&क्राधाव क्‍फ्टप्रवं--48० झक्रां: 77235, प्र॥05. ब्यत ९५६, एच था, 8. #५७

वरप्रढ १०4८७ एंछाबा३, ऐरट्ण छा, 933. ++ [६४090%37, १००८१ 8५ छजए<5 शात॑ ६८5, ०7 28/., 43,

अपराध और अपराधी 4]

है। अमरीकी विद्वानु ढेवस्टर ने भी 904 में जलवायु वायु का मनुष्य के व्यवहार पर प्रभाव का अध्ययन किया और यह निष्कर्ष तिकाला कि अपराध एवं भौगोलिक पर्यावरण का आपस में गहरा सम्बन्ध है ॥! फ्रास के विद्वानु क्वीटले के अनुसार व्यक्ति के विरुद्ध अपराध दक्षिण में

अधिक प्राप्त होते हैं और गर्मियो में वढ़ जाते है तथा सम्पत्ति के विरुद्ध अपराध उत्तर दिश्वा में अधिक मिलते हैं और सदियों मे बढ़ जाते हैं। इस प्रकार उसमे भी अपराध और जलवायु का पारस्परिक सम्बन्ध बताया। इस उपकल्पना को स्मिथ और चैम्पन्यूफ ने ।825 और 830 के मध्य फ्रांस में किये गये अध्ययन के आधार पर प्रमाणित किया इस अध्ययन में उनको फ्रास के उत्तरी भाग में व्यक्ति के विरुद्ध किये गये हर 00 अपराध के पीछे सम्पत्ति के विरुद्ध 78'5 अपराध मिले जबकि दक्षिण फ्रास में व्यक्ति के विरुद्ध किये गये हर 00 अपराध के पीछे उन्हे सम्पत्ति के विरुद्ध 488 अपराध ही मिले फ्रासीसी विद्वान्‌ लेकासिन को भी 825 और 4880 के मध्य किये गये सम्पत्ति के विरुद्ध अपराधों के परीक्षण में सबसे अधिक अपराध दिसम्बर के माह में मिले और तत्पश्चात्‌ जनवरी, नवम्बर और फरवरी के महीनो मे ।/ इस प्रकार इन सभी अध्ययनों द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया था कि भौगोलिक कारक और अपराध का आपस में गहरा सम्बन्ध है। लेकिन इन सभी अध्ययनों में अपराध की समस्या को बहुत ज्यादा सरल बनाया गया है।

यदि भौगोलिक कारक ही अपराध के प्रमुख कारण होते तो एक हो क्षेत्र में पाये जाने वाले समान पर्यावरण में सदेव एक ही प्रकार का एक ही मात्रा में अपराध मिलता परन्तु हम जानते हैं कि ऐसा नही होता बान्सं और टीटस ने भी कहा कि एक ही भौगोलिक पर्यावरण में रहने वाले व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न प्रकार का व्यवहार पाया जाता है, जिससे सिद्ध होता है कि भौगोलिक पर्यावरण का अपराध में कोई विद्येप

महत्त्व नही है

भ्राथिक सिद्धान्त (80970०7० धा००७)--इस सिद्धान्त में अपराध का

प्रमुख कारण निर्धनता बताया गया है सबसे पहले 894 में इटली के विद्वागु फोरनासारी ने अपराध और निर्धनता में सम्बन्ध बताया था | उसके अनुसार इटली

की कुल जनसंख्या में से 60 प्रतिशत लोग निर्धन है और इस देझ में पाये जाने वाले

विभिन्न अपराधियों में से:85 से 90 प्रतिद्चत अपराधी इन्ही 60 प्रतिशत निर्घन

जनसंस्या में से हैं। 96 में नीदरलंण्ड के अपराधझास्त्री बॉगर मे भी यह

बताया कि दरिद्रता और समाज का पूंजीवादी ढाँचा अपराध के प्रमुख आधार है।

निर्धनता से छुटकारा आयथिक उत्पादन और वितरण के साधनों के पुनर्गठन

अथवा एक बर्गहीन समाज की स्थापना से हो सकता है मौर इसी से ही अपराध को

छ9द, 895 59, मे €वफ्रैस 4एए८०६९०७, >ै३:का!]त (०., पट ४00. 4904.

4१ (०८॥०, (.030972ए[ ३50 [.3035535876, व००/८९ 0७५ फ्ायत्त 290 वल्‍टटः< 22. ९६. 843. $ अमरक

42 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

भी कम किया जा सकता है | 938 में इंग्लेण्ड के विद्वान्‌ु सिरिल बर्ट ने भो बाल-अपराध और निर्धनता का सम्बन्ध अध्ययन करते हुए यह पाया कि 9 प्रतिशत बाल-अपराधी अत्यन्त निर्धन परिवारों के सदरय थे और 37 प्रतिशत सामान्य परिवारों के सदस्य थे इस आधार पर उसने कहा कि यद्यपि अपराघ और निर्धनता में पारस्परिक सम्बन्ध मिलता है किन्तु फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि सभी अपराध केवल निर्धनता के कारण ही होते हैं ।/ 95 में वित्रियम हीले ओर ब्रानर ने आर्थिक स्तर का एक पाँच अंक का नाप निर्धारित करते हुए 675 अपराधियो में से 5 प्रतिशत हीन वर्ग के सदस्य पाये, 22 प्रतिह्यत निर्धन वर्ग के, 35 प्रतिशत सामान्य वर्ग के, 34 प्रतिशत आरामदेह अथवा सुखी वर्ग के और 4 प्रतिशत विलासी वर्ग के सदस्य पाये अतः इस अध्ययन से यह सिद्ध होता है कि 73 प्रतिशत अपराधी आ्थिक रूप से सामान्य अथवा अच्छे परिवारों के सदस्य थे ।४१ भारत मे रटनशा द्वारा वम्बई में अध्ययन किये गये 225 अपराधियों में से केवल 20 प्रतिशत ही उन निर्धन परिवारों के सदस्य पाये गये जिनकी मासिक आय 50 रुपये से कम थी, 58 प्रतिशत उन परिवारों के सदस्य थे जिनकी आय 50 और 500 रुपये के मध्य में थी, 72:33 प्रतिशत 500-2000 रुपये आय वाले परिवारों के सदस्य, :78 प्रतिशत ]000-2000 रुपये आय वाले परिवारों के सदस्य, और 2:66 प्रतिशत 2000 से अधिक आय वाले परिवारों के सदस्य थे ।** उपयुक्त अध्ययनों के आधार पर हम अपराध मे आथिक स्तर को बहुत महत्त्व नही दे सकते सदरलैण्ड का भी कहना है कि निर्धन परिवारों मे अधिक अपराध इस करण मिलते हैं क्योकि वे एक तो आसानी से ढूंढे जा सकते हैं, दूसरा अमीर बर्गे के बहुत से अपराधी-प्रभाव सिफारिश के कारण बच जाते है, और तीसरा शासन-सम्वन्धी प्रतिक्रियाएँ ऊँचे स्तर वाले व्यक्तियों के लिए अधिक पक्षपाती होती हैं ४? समाजशास्त्रीय सिद्धान्त--इस सिद्धान्त के अनुसार अपराध का प्रमुख कारण सामाजिक परिस्थितियाँ है तथा अपराध 'एक सीखा हुआ व्यवहार है” आनुवंशिक व्यवहार नही अपराध सीखने की प्रक्रिया अन्य सामाजिक व्यवहारों के सीखने की प्रक्रिया जैसी ही होती है। रूथ कंवन का कहना है कि विभिन्न समूहो से सम्पर्क द्वारा अपराध उसी प्रकार सीखा जाता है जिस प्रकार अन्य सम्पर्को द्वारा हम टेनिस खेलना या तेरना आदि सीखते है ।*१ अपराध की दर में विभेद का कारण सामाजिक

3३ 80786; १/. 2.., (/#णकवा।(ए ब्यवब कलाकार टकाब्रोधाश5, 7/00० 87097, फेठशणा, 396

48 (५! 877, जगह 0थफिव्‌कटाम, एज॑र, 9 [.000णा ए655, [.00, 944. प30-37 'गंगि घरव्ग), उम्ट रखकाबनरम छशाववबबाा, 770॥2 87007, 03000, 494$

ए७७४00593, 0. .र., उ्डटकौट उ0लंफदुण्टाल्छ. क्रार्व. 90क्‍रक्लांश हि 20गाक एलल्‍स्बए (०॥०8९८, 90002, 947, 57.

#7 छतक्ालाबच9, ०9, ८7/.. 494.

8 (३९४० ७७, ८: फ्रा/००९०, टोएचरी, घटछ ४०075, 955

अपराध और अपराधी 43

संगठन अथवा विभिन्न संस्थाओं में विक्रिघ्रता है। छुछ सामाज्कि कारक जिनके कारण अपराध में विभेद मिलता है, धन का बेंटवारा, राजनीतिक, धामिक और आधिक विचारधाराएँ, जनसंख्या का घनत्व, सांस्कृतिक संधर्ष, नौकरी के उपलब्ध साधन आदि हैं। परन्तु विभेद के इस विचार को आजकल के कुछ अपराधघदास्त्री मान्यता नही देते उत समाजश्चास्त्रियों में जो समाजश्यास्त्रीय सम्प्रदाय के प्रमुख प्रतिपादक है : सदरर्लण्ड, अलबर्ट कोहेन, किलोवाई और ओहलिन, मर्टंन, विलफोर्ड शाहू, आलम, तथा वालटर रेकलेस उल्लेखनीय हैं। इन सबके सिद्धान्तों का हम अलग-अलग विवेचन करेंगे। सदरलेंण्ड का सिद्धान्त (5प्रशाशा&70'5 ॥००५)--939 में सदरलैण्ड ने विभिन्न सम्पर्क! ()लिशा08] 85502०॑०४०॥) का सिद्धान्त दिया था। उसके अनुसार अपराधी व्यवहार की दो व्यास्याएँ हो सकती हैं ! पहली परिस्थिति सम्बन्धी व्याख्या और दूसरी जन्म सम्वन्धी अथवा ऐतिहासिक व्याख्या। पहली व्याख्या में अपराध को उन प्रतिक्रियाओं द्वारा समझाया जाता है जो अपराध करने के समय कार्य करते हुए पायी जाती हैं तथा दूसरी व्याख्या के अनुसार अपराध को उन प्रतिक्रियाओ द्वारा समझाया जाता है जो अपराधों के विछले इतिहास अथवा पृष्ठभूमि मे कार्य करते हुए पायी जाती है। इन दी व्याख्याओ मे से सदरर्लैण्ड जन्म सम्बन्धी अथवा ऐतिहासिक व्याख्या को मानता है ।/ इसको एक 'उदाहरण द्वारा समभाया जा सकता है। मान लीजिए, एक भूखा व्यक्ति रास्ते से जाते हुए किसी खाने की दुकान पर दुकानदार को नही पाता है। उस समय परिस्थिति का लाभ सठांकर वह रोटी चोरी करके अपनी भूख मिटाता है। चोरी का कारण क्या यहाँ उसकी भूख और दूकानदार का होना था ? यदि हाँ, तो हम कह सकते है कि परिस्थिति के अनुबू होने के कारण उसने चोरी की यह अपराध की परिस्थिति सम्बन्धी व्याख्या होगी परन्तु सदरलेण्ड के मतानुसार उसकी चोरी की यह व्याख्या सही नही है अपने जीवन की पृष्ठभूमि के आधार पर ही उसकी अपराध करने की प्रवृत्ति विकसित होती है तथा यह प्रवृत्ति ही उसे यहां चोरी करने के लिए उत्साहित करती है यह अपराध की जन्म सम्बन्धी अथवा ऐतिहासिक व्याख्या हुई। सदरलेण्ड का विचार था कि किसी परिस्थिति को अपराध के लिए प्रतिवूल या अनुवू समभना व्यक्ति पर ही निर्भर करता है | अपराध मे मुख्य वात है व्यक्ति का पिछला इतिहास अथवा उसका अन्य लोगों से सम्पर्क द्वारा अपराध सीखना इस आधार पर सदरलैण्ड ने 'विभिन्न सम्पर्क के सिद्धान्त की रचना की जिसमे उसने कहा कि (क) अपराध सगीत, कला आदि जैसा 'सीखा हुआ व्यवहार' होता है, तथा (ख) यह्‌ अपराधी-ब्यवहार अपराधी प्रतिमानो द्वारा सीखा जाता है। उसने अपने सिद्धान्त की अग्रलिखित उपकल्पनाएँ दी हैः"... हि

3० 56 घैबा6, ०. था, 76-80. ४० 8/4., 77-79.

44 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तत. *

() अपराधी-व्यवहार सीखा जाता है इसका नकारात्मक अर्थ यह हुआ कि यह आनुवशिक व्यवहार नही होता वह व्यक्ति जो पहले से ही अपराध करने के लिए प्रशिक्षित नही है अपराधी-व्यवहार का आविप्कार नहीं कर सकता। यह उसी प्रकार है जिस प्रकार बिना यन्त्र-विज्ञान शिक्षा के कोई व्यक्ति यन्त्र सम्बन्धी आविष्कार नही कर सकता

(2) यह विचारों के सचार की प्रतिक्रिया मे ट्रेसरे ज्ञोगों से बातचीत अथवा अन्तःक्रिया द्वारा सीखा जाता है। विचारों का आदान-प्रदान अधिकतर मोखिक होता है यद्यपि यह संकेतों द्वारा भी हो सकता है।

(3) अपराधी-व्यवहार का सीखना मुख्य रूप से घनिष्ठ प्राथमिक समूहों में ही होता है। इसका यह अर्थ हुआ कि द्वितीयक समूहों जैसे चलचित्र, समाचार-पत्र आदि का अपराध में कोई महत्त्व नही होता

(4) अपराधी व्यवहार को सीखने में दो बातें सम्मिलित हैं--(क) सरल और जटिल अपराघ करने के तरीके सीखना (ख) विशेष मनोवृत्तियों, प्रेरणाओं, प्रेरक शक्तियों और त्ं-वितर्कों का सीखना

(5) विशेष प्रेरणाओं एव प्रेरक शक्तियों को कानून सहिताओं के अनुकूल अथवा स्वीकृत और प्रतिवूल या तिरस्कृत परिभाषाओं द्वारा सीखा जाता है।

(6) व्यक्ति अपराधी इसलिए वनता है क्योकि वह्‌ कानून के उल्लंघन के अनुकूल परिभाषाओं को कानून के उल्लघन के प्रतिकूल परिभाषाओं की अपेक्षा अधिक अपनाता है। यह ही सदरलेण्ड के अनुसार 'विभिन्न सम्पर्क” का. मूल-सिद्धान्त है। दूसरे छाब्दो मे व्यक्ति “के अपराधी बनने का कारण उसका अपराधी प्रतिमानों के सम्पर्क मे अधिक आना तथा अनपराधी प्रतिमानों से अलग रहना है।

(7) सम्पर्कों की विभिन्नता अवधि, तीक्रता, प्राथमिकता और पुनरावृत्ति के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है। दुसरे शब्दो मे व्यक्ति का अपराध-व्यवहार से प्रारम्भिक जीवन में कितना पहले सम्पर्क हुआ, कितनी बार सम्पर्क हुआ, कितनी देर तक सम्पर्क रहा और कितना अधिक या तीव्र सम्पर्क हुआ इन सब बातों का उसके अपराध करने या करने मे वहुत महत्त्व है।

(8) अपराधी प्रतिमानो के सम्पर्क मे अपराधी व्यवहार सीखने की विधियाँ वही है जो किसी कानूनी मान्यता व्यवहार के सीखने मे पायी जाती है।

(9) यद्यत्रि अरराधी व्यवहार सामान्य आवश्यकताओं: और मूल्यों की अभिव्यक्ति है, फिर भी इसको केवल इन्ही के आधार पर नही समझाया जा सकता क्योकि अनपराधी व्यवहार भी इन्ही आवश्यकताओं और मूल्यों की अभिव्यक्ति है।

सदरलेण्ड के इस सिद्धान्त की हरवर्ट ब्लाच, काल्डवैल, क्रीसे, जाजें बोल्ड आदि बहुत से समाजश्ञास्त्रियों ने आलोचना की है।# प्रमुख रूप से इसके विरुद्ध

3+ सलाएलाई छ00, कक एक्ट दा 5्टराथ, 0-5 ; 080ए८॥, ०४. टां।..

482 ; 0८0४८ १०१, ०9. दं४., 95-97 ; 055549, 00746, जत्हगकां ०/ (7क्ाकयों सबक कब टा।#ा/०॑०2०, ऐ७३४५-१७४० 952, 5-52. न्‍

अपराध और अपराधी 45

दिये गये तक इस प्रकार हैं--

() अधिकांश प्रथम और आकस्मिक अपराधियों में अपराध सीखने की प्रतिक्रिया नही पायी जाती जैसा कि सदरलंण्ड का अनुमान है।

(2) यह सिद्धान्त हर प्रकार के अपराध को नही परन्तु कैवल व्यवस्थित अपराध को ही समझमाता है

(3) यह सिद्धान्त परिस्थिति सम्बन्धी तथा थ्ारीरिक और मनोवैज्ञानिक कारणों का कोई महत्त्व नही देता

(4) अन्य लोगो के साथ अन्तःक्रिया में एक व्यक्ति क्योंकर कुछ नियमों का अन्तरीकरण करता है और कुछ को अस्वीकार करता है, सदरसेण्ड ने नहीं समझाया है।

(5) यह्‌ मानव व्यवहार में 'स्वतन्त्र इच्छा” के तत्त्व, कामुकता, ग्राप्ति की इच्छा, आक्रामकता आदि जैसी मूल प्रवृत्तियीं को भी स्वीकार नही करता जिसका महत्त्व आजकल के किसी भी वैज्ञातिक ने अस्वीकार नही किया है

(6) यह सिद्धान्त व्यवस्यित अपराधी व्यवहार भर व्यवस्थित कामरनी- मान्यता व्यवहार के बीच भेद पैदा करता है जबकि मानव व्यवहार को इस प्रकार विभाजित नहीं किया जा सकता मनुष्य के प्रत्येक व्यवहार में, चाहे वह अपराधी व्यवहार ही क्यों हो, क्रम पाये जाते है जो एक-दूसरे के साथ मिल जाते हैं।

(7) यह सिद्धान्त सीखने की प्रतिक्रिया को बहुत सरल करता है जबकि सामाजिक मनोविज्ञान के विद्वानों के अनुसार सीखने की प्रतिक्रिया में जटिलता पायी जाती है। फिर, केवल 'सीखने की भ्रक्रिया” को ही मानव व्यवहार का सम्पूर्ण आधार नही माना जा सकता क्योंकि इससे प्रयोजन और प्रत्यक्षीकरण पर आधारित सिद्धान्तों का कोई महत्त्व नहीं रह जायेगा

(8) स्दरलेण्ड ने व्यवस्थित अपराधी व्यवहार! और सामाजिक विघटन जैसे मूल शब्दों को परिभाषित नही किया है।

इस सिद्धान्त के विरुद्ध सबसे अधिक हानिकारक वक्तव्य 952 में डोनाल्‍ड क्रीसे ने दिया था। विश्वासघात सम्बन्धी (धग्र& शा०/४४075$) अपराधों के एक अध्ययव के आधार पर उसने कहा कि वैज्ञानिक अनुसस्धान द्वारा यह सिद्ध करना या गलत साबित करना शायद ही सम्भव हो कि संदरल॑ण्ड का सिद्धान्त वित्तीय अमानत के उल्लंघन के अपराध या अत्य किसी भी प्रकार के अपराधों को स्पष्ट

करता है।* इस प्रकार इस सिद्धान्त का विद्या सम्बन्धी महत्त्व से अधिक कोई मूल्य नही है। अधिक से अधिक हम यह कह सकते हैं कि (4) यह सिद्धान्त अपराध में सामाजिक कारको को महत्त्व देता है, (2) अपराधी व्यवहार और कानूनी व्यवहार के सीसने मे समानता बताता है, और (3) इस-बातं पर बल देता है कि अपराध केवल ,व्यक्तित्त विघटन के आधार पर स्पष्ट नही किया जा सकता क्योंकि

(655८५, 0. 7२,, ०#. ला. 43.

46 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवतंन

बहुत से ऐसे अपराधी हैं जिन्होंने स्वयं का उसी प्रकार समायोजन किया है जिस प्रकार बहुत से प्रतिभाशाली व्यक्ति अपना समायोजन करते हैं। बलोवार्ड और झोहलिन का सिद्धान्त--क्लोवार्ड और ओहलिन का अपराध

और अवसरबवादिता' का सिद्धान्त सदरलण्ड के “विभिन्न सम्पर्क' और मर्टन के “व्याधिकी' (॥707८) सिद्धान्त पर आधारित है। इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति अपने लक्ष्यों तथा अभिलाषाओं की प्राप्ति के लिए वैध अथवा कानूनी साधनों के उपलब्ध होने के कारण अवैध अथवा गैर-कानूनी साधनों द्वारा उनको श्राप्त करने का प्रयत्न करता है और यह अवैध प्रयत्न अपराध होता है ।* यद्यपि अभिलापाएँ हर व्यक्ति मे पायी जाती हैं और सभी व्यक्ति उनको प्राप्त भी नहीं कर पाते पर फिर भी वे सभी इस कारण मैर-कानूनी साधनों का प्रयोग अथवा अपराध नही करते क्योकि यह अवैध साधन हर व्यक्ति को उपलब्ध नही होते किसी व्यक्ति के लिए अपने आपके उपलब्ध अवसर-ब्यवस्था मे समायोजन के लिए आयु, लिग, सामाजिक और आशिक स्थिति आदि जैसे परिवर्त्य (४थां9065) भुख्य होते हैं।

, कलारेस जिराग ने क्लोवाडं और ओहलिन की मुख्य उपधारणाओं का व्यवस्थित रूप से पुनर्गठन किया है। यह नयी उपधारणाएँ इस प्रकार हैं'---

() मध्य वर्ग के लक्ष्य, विशेषकर आशिक लक्ष्य, वहुत फैले हुए होते हैं। निम्न चर्ग के सदस्य इन लक्ष्यों के आधार पर अपनी आशिक स्थिति सुधारना चाहते है

(2) प्रत्येक संगठित समुदाय में इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए वैध और नियन्त्रित अवसर पाये जाते है।

(3) भिन्न-भिन्न सामाजिक वर्गों के लिए यह प्राप्ति के अवसर अलग-अलग रूप से प्राप्ति-योग्य (३०८०४४७०) होते हैं

(4) इन साध्यों की श्राप्ति के लिए गेर-कानूनी साधन किसी विद्येप समुदाय समूह को उपलब्ध हो भी सकते हैं और नही भी

शिराग के अनुसार उपर्युक्त उपधारणाएँ दो बातें: स्पष्ट नहीं करती है-- (।) निम्न वर्ग के सभी वालक अपराधी गिरोह के कार्यों को क्‍यों नहीं अपनाते ? (2) हम उन निम्न वर्ग के सदस्यों की पहचान नही कर सकते जिन्हें अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए गैर-कानूनी अवसर उपलब्ध हैं जिस कारण वे अपराधी गिरोहों के कार्यों में भाग लेते हैं। इस कारण शिराग ने ऊपर दिए हुए चार उपधारणाओं के अतिरिक्त त्तीन और भी उपधारणाएं दी हैं जो इस प्रकार हैं---

() निम्न वर्गों के उत सदस्यों मे अपराधी गिरोह के कार्यों को अपनाने की

४३ (05 8509 0, कशाकदुष्टएटछ बचे 07:70: 4 रण थी टोश[हन इधश्य! 55725, 4८७ ४४०८, 3966, 44-52.

54 (7८0८९, 5्यावड, 50ठंगलए' कार्ब॑ डग्दंबा अऑडटबालट, भ०णे, 46, ॥967, 67-70. &७० 5८८ 0. २. [98आहुड्ा८, "ऐशए१व०८०९७ 30९ 07900ा७५ $ "॥609 0 पार ए०7१७ उप्रधविरज्ञा०त्र, उन्‍्तंगग्दडांट्य 272, ५०. 36, 559५. 967, 39-56.

अपराध और अपराधी 47

ग्रहण-क्षमता अधिक है जो (क) वैध व्यवस्था को स्वीकार वही करते और अपने को उससे अलग समभते हैं; (स) जो अपने समायोजन की समस्या के लिए स्वयं के स्थान पर सामाजिक व्यवस्था को दोपी बताते हैं; (ग) जो वैध साधनों को व्यावहारिक निषुणता (फाम्डगाशां० शीक्षंध्ा०४) को अस्वीकार करते हैं।

(2) रूढ़िगत नियमों को अस्वीकार करने का कारण है औपचारिक और व्यावहारिक अवसर में भेद ऐसे लोग औपचारिक अवसर को परिस्थिति को तो मानते हैं परन्तु उसकी वास्तविक उपयोगिता को अस्वीकार करते है। इस कारण रूढ़िगत नियमों का मानना सबसे अधिक उनमें मिलेगा जो सोचते हैं कि प्राप्ति के औपचारिक अवसर के उपस्थिति के आधार पर वे अपने उद्देश्यों को प्राप्त तो कर सकते हैं पर क्योकि वास्तव में उनको इन साधनों की उपलब्धि नहीं है इस कारण वे उतको प्राप्त नहीं कर पाते

(3) इन रूढिगत नियमों की बैधता से स्वयं को अलग करना नियमों को मानने वाले व्यक्तियों मे अपराध की भावना को कम करता है तथा अपराधी उपसंस्कृति (कश्षारवृषटण $78-०णाए7८) की रचना के लिए नीव भ्रस्तुत करता है

क्लीवार्ड के इस अपराध के सिंद्धान्त की यद्यपि अमरीका में कुछ अधिक मान्यता है किन्तु इसके विरुद्ध भी दो तीन तक दिये जा सकते हैं--

“5 (]) यह सिद्धान्त सभी प्रकार के अपराधों के कारणो को स्पष्ट नही करता

(2) इस सिद्धान्त में प्रयोग किये गये कुछ सेद्धान्तिक शब्द जैसे अवसर- व्यवस्था, अवसर की उपलब्धि, वैधता को अस्वीकार करना आदि की व्यावहारिक परिभापा नही दी गयी है जिस कारण उनको अनुसन्धान के लिए अनुपयुक्त पाया जाता है और इसके सम्पूर्ण सिद्धान्त का महत्त्व समाप्त हो जाता है

(3) कोहेन का कहना है कि क्लोवार्ड और ओहलिन द्वारा दिया गया बेंध और अवैध अवसर का द्वि-भाजन (0000०079) इतना सरल ओर स्पष्ट नहीं है। यद्यपि दोनों के बीच अन्तर यथार्थ (7९७) है परन्तु यह ठोस (००॥०७४) नही, "केवल विश्लेषणात्मक (279५02४!) है। दुसरे शब्दों मे कोहेन के अनुसार यह नहीं कहा जा सकता कि कुछ अवसर तो वैध होते है और कुछ अवैध एक ही अवसर वध भी हो सकता है तो अवैध भो ! जैसे एक वन्दूक हिरत को मारने के लिए वैध साधन कहलायेगी किन्तु वह ही बन्दुक आदमी को मारते के लिए अवैध साधन मानी

जायेगी अतः वैध और अवैध अवसर के मध्य स्पष्ट भेद के अभाव में क्लोवार्ड और ओहलिन के ध्षिद्धान्त का महत्त्व बहुत कुछ कम हो जाता है। हि

(4) क्जोवार्ड-ओहलिन के अनुसार निम्न वर्ग का व्यक्ति अपना आर्थिक स्तर तो ऊँचा करना चाहता है परन्तु मध्य वर्ग का सदस्य बनकर अपनी सामाजिक स्थिति बदलना नहीं चाहता। दूसरे शब्दों में क्लोवार्डडजोहलिन जीवनस-स्तर

(॥०-॥9६ णांध्यभांणा) और आायिक-स्तर (०००7०फरांए णांध्रावाणा) को एक दूसरे से पृथक्‌ मानते हैं। गार्डन (504०४) का मत है कि जीवन * का क्षमा; स्तर और आधिक स्तर अलग-अलग नहीं पाये जाते तथा जब व्यक्ति अपना

१8 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

स्तर ऊँचा करना चाहता है तो वह सामाजिक स्थिति में भो अवश्य परिवर्तन चाहता है। शार्ट और कार्टराइट ने भी वलोवार्ड-ओहलिन के सिद्धान्त की आलोचना की है। उनका कहना है कि उनके अध्ययन के आधार पर यह किसी तरह सिद्ध नहीं होता कि निम्न वर्ग के किशोर जिनको अपने मध्य वर्ग के मूल्यों, उद्देश्यों विशेषताओं की प्राप्ति के लिए वैध तरीके उपलब्ध नही हैं अथवा प्राप्ति-योग्य नहीं है उनके प्राप्ति के लिए अवैध तरीके प्रयोग करते हैं जिससे अपराधी उप-संस्कृति की 'रचता होती है ।४ भर्टन का सिद्धान्त (६०7४ ह6०५)--मर्टन ने 946 में व्याधिकी सिद्धान्त (१॥००५ #आणाएं०) का प्रतिपादन किया विभिन्न समाजशास्त्रीय और मनोवज्ञानिक सिद्धान्तों ने अपराध के कारणों मे व्यक्तित्व और उद्देश्य पर वल दिया है परन्तु मर्टन ने अपने सिद्धान्त मे सामाजिक व्यवस्था के कार्य सम्पादन और तत्त्वों के आधार पर अपराधी व्यवहार को समभाया है। सर्वेप्रथम फ्रांसीसी विद्वानु इुर्खीम ने एनोध्या '(४॥०7४७) शब्द का प्रयोग अपनी पुस्तकों पञफ्ंझ्रणा णी ॥.॥००ए (893) बोर '8णंणं०१७ (897) मे 'किया था उसने ऐनामी (7076) शब्द को लेकर यद्यपि आत्महत्या की व्याख्या की थी परन्तु उसके आधार पर अपराध के किसी व्यापक सिद्धान्त की रचना का प्रयत्त नहीं किया यह प्रयत्न मेन ने ही 946 में अपने लेख *5008॥ 807८७ 8॥0 0०77 ०' में किया था ।४ मर्टन ने अपने व्याधिकी सिद्धान्त में तीन परिवरत्यों (शशायं४०6) को लेकर अपराध समभाया है। ([) संस्कृति लक्ष्य--वे लक्ष्य और अभिलापाएँ जो व्यक्ति अपनी संस्कृति के कारण सीखते है। (2) नियम--वे नियम जो व्यक्ति के लिए उसके लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए वैध साधन सीमित करते हैं (3) भ्रवसर---जो लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उपलब्ध है मर्टेन के अनुसार प्रत्येक सामाजिक संरचना में सास्क्ृतिक लक्ष्य मिलते हैं जिनकी प्राप्ति के लिए कुछ सस्थागत आदर्श उपाय होते हैं। (उदाहरण के लिए भारतीय संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति के लिए धर्म, अर्थ, काम्त और मोक्ष चार लक्ष्य बताये गये है जिनको प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचय, गहस्थ, चानप्रस्थ तथा संन्यास चार आदर्श उपाय वताये गये हैं)। किसी भी सामाजिक संरघना में उसके सांस्कृतिक लक्ष्यों तथा संस्थात्मक आदर्शझों उपायों में एक सन्तुलन पाया जाता है। इस सन्तुलन बिगड़ने की स्थिति को मर्टन 'ऐनामी' कहता है। दुसरे शब्दी में, सर्टत के अनुसार ऐनामी की परिस्थिति लक्ष्यों और उनके प्राप्ति के लिए सुलभ वेध

8065, 3. 98, जाएं एब्ाएशोए्वा।, 0. 5., 4#ाश्ंत्का उठ्ककगरदा थी 3म्तंगगह/ 9०. 39, 5०9४, 963, 5.

8 जटा[००, 7२. :., १5००३ 5प्एलचार ड0ते शैप०ए्रांट', 4श्वष्व॑त्दा कगलेगेए्ांटर्या कोशारश, 00, 4946, 62-82.

अपराध और अपराधी 49

साधनों के सम्बन्ध के टूटने के कारण उत्पन्न होती है ! अपराधी व्यवहार सांस्कृतिक लक्ष्यो और उनकी प्राप्ति के लिए संस्थात्मक साधनों की विलगता (प्रंश्णा०/0०7) का एक लक्षण है। सांस्कृतिक लक्ष्यों और संस्थात्मक साधनों को स्वीकार करने से व्यक्ति का व्यवहार सामाजिक नियमों के अनुकूल पाया जाता है, परन्तु दोनों में से एक को स्वीकार अस्वीकार करने या दोनों को अस्वीकार करने से व्यवहार “विचन्नित व्यवहार! कहलाता है। इस प्रकार मर्टन के अनुसार विचलित व्यवहार ही समाज में ऐनामी की स्थिति उत्पन्न करता है तथा सामाजिक ढाँचा व्यक्ति पर समाज-विशेधी व्यवहार करने के लिए एक निदिचत दवाव डालता है।श मर्टन ' अपराध के ब्विए व्यक्ति के जैविकीय स्वभाव को कोई महत्त्व नहीं देता जबकि दुर्खीम ने आत्महत्या की व्यास्या में व्यक्ति के जेविकीय स्वभाव को एक मुख्य कारक माना 'था। जब दुर्खीम ने व्यक्ति के अपर्याप्त लक्ष्यों को प्राप्त करने के प्रयत्न का कारण उसकी आन्तरिक अथवा स्वाभाविक इच्छा बताया था, मर्टन ने इसका कारण सामाजिक ढाँचे द्वारा प्रोत्साहन मिलना बताया है।

मर्टन के सिद्धान्त की कोहेन, क्लिनार्ड, लेमटं, शार्टे आदि ने आलोचना की

है। प्रमुख आलोचनाएँ इस प्रकार हैं--(7) समाज द्वारा माननीय साधनों से अभिलापाएँ प्राप्त होने पर तनाव उत्पन्न होने से प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक नियमों का उल्लधन नहीं करता, (7) मर्टन ने यह स्पप्ट वही किया है कि किस प्रकार का व्यक्ति कक्ष्यो को या साधनो को या दोनों को अस्वीकार करता है, (77) विचलित व्यवहार करने वाले व्यक्ति की स्थिति स्पप्ट करने के लिए सामाजिक नियन्त्रण की भूमिका को आवश्यक महत्त्व नही दिया गया है, (५) ब्लिनाडे के अनुसार मर्टन का सिद्धान्त पूर्णवः इस मान्यता पर आधारित है कि विचलित व्यवहार दोपपूर्ण अनुपात में (त590906०79/29) निम्न वर्ग के लोगों में अधिक पाया जाता है। यह मान्यता सही नही है अनेक व्यवसाय के लोगों के अध्ययन से यह पता लगता है कि अपराध समाज के उच्च वर्गों में अधिक पाया जाता है। इसी प्रकार वाल- अपराध भी केवल निम्न वर्ग के बच्चो मे किन्तु मध्य और उच्च वर्गो के बच्चों मे भी काफी मिलता है, तथा (९) इस सिद्धान्त मे सामाजिक सरचना में व्यक्ति की स्थिति को एक महत्त्वपूर्ण परिवर्त्य॑ (शथ्यांठ06) मान लिया गया है तथा उसके व्यक्तित्व आत्म-अवधारणा (था गपर2१०) आदि जैसे तत्त्वों को कोई महत्ता प्रदान

नही की गई है। श्रत्राहमसेन का सिद्धान्त (02शर्त 8 छाथ्ाश्ा5८॥ प॥००७)--अंब्राहमसेन ने तीन निश्चित तरीके बताये हैं जिनके कारण व्यक्ति अपराध करता है---

- . ([) हर व्यक्ति में असामाजिक श्रवृत्तियाँ होती हैं। जीवन में कमी कोई ऐसी

कुशाए), "एग्राढ१३8 8 उल्कुणाउट १0 3 ड्ॉसचा ऑफयधगप, उ2लंग गाव काबडण्लबा 5॥कटाकल्ड, 957, ! ३॥-94, &50 ३८८ &0८४६ ॥९. (0४८०5 0शपक्राहर बाव॑ (००7, 70फ्रत40 का 9 (००६१ इ०लं०० ३६५ 5०765, एशटाएव्ढ है 966, 75-77...

+९ 465:गध्ा5०० क्‍04४80, ६०5७८०४००१५३१ 0-८९, ०9, ०४ /., 33, हा

50 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवतंन

घटना घटती हैं जो उसकी समाज-विरोधी प्रवृत्ति को प्रेरणा देती है जिसके फलस्वरूप वह अपराध करता है।

(2) कभी-कभी व्यक्ति कोई ऐसा अनुचित कार्य कर बैठता है कि वह स्वयं को अपराधी समभता है और चाहता है कि उसका उसे दण्ड मिले। पर क्योकि अन्य लोगों को उसके उस अनुचित कार्य का कोई ज्ञान नही होता इससे उसे दण्ड नही मिलता इसलिए अपराधी विचारों के जड़ पकड़ने और उसके दण्ड मिलने की अचेतन इच्छा के कारण वह अपराध करता है जिससे उसे दण्ड मिले और उसका पशचाताप हो सके

(3) जो व्यक्ति सावेगिक रूप से कमजोर या असुरंक्षित होता है उसमें एक आक्रमणकारी सांवेगिक धारणा विकसित होती है। वह इस आक्रमणकारी धारणा को प्रतिवाद और विद्रोह द्वारा प्रदर्शित करता है और इस प्रकार अपराध करता है।

अद्वाहमसेन ने अपराध के बारे में दो “नियम! भी दिये है--

(१) अपराध का कारण एक से अधिक कारक है।

(2) अपराध व्यक्ति की अपराधी मनोवृत्तियों, सम्पूर्ण परिस्थितियों और उसके प्रलोभन के प्रति मानसिक और सावेगिक प्रतिरोध पर आधारित है। इससे सम्बन्धित उसने एक अंकगणितीय सूत्र भी दिया है :४९ मनोवृत्तियाँ + परिस्थितियाँ

प्रतिरोध

अब्राहमसेन द्वारा अपराध के स्पप्टीकरण के लिए दिये गये दो 'नियम” तो समभ में आते है परन्तु उसके तीन “निश्चित तरीको' में कोई बल नहीं मिलता। यदि हम यह भी मान ले कि असामाजिक प्रवृत्तियों की प्रेरणा अपराध का एक कारण है तो भी उसके दण्ड की अचेतन इच्छा और आक्रमणकारी सांवेगिक धारणा का अपराध में कोई प्रमाण नहीं मिलता। लेकिन अब्राहमसेन के अपराध के बहुकारकवादी सिद्धान्त को आजकल बहुत से समाजशास्त्री मानते हैं।॥ इसी प्रकार उसके अकगणितीय सूत्र में व्यक्तित्व और परिस्थितियाँ दीनो पर बल देना भी बहुत विद्वानों ने स्वीकार किया है

_बिलफोर्ड शा का सिद्धान्त (0800 80897 प्र॥००५)--शा के अपराधी क्षेत्र! के सिद्धान्त के अनुसार अपराध का कारण व्यक्ति के ऊपर “इकालाजी' (००००४५४) अथवा उसके आस-पास के वातावरण के स्वाध्याय का प्रभाव है“ इकालाजी व्यक्ति और उसके स्थान सम्बन्धी पर्यावरण के सम्बन्ध पर वल देती है। शा के इस सिद्धान्त के पूर्व फ्रेड़क थिरेशर ओर रावरटे पार्क ने भी इसी प्रकार की धारणा दी थी | इनके अनुसार व्यक्ति एक जेविकीय अथवा इन्द्रिय सम्बन्धी प्राणधारी (०४००४० शध्क्षाए्र०) है और इस कारण उसका व्यवहार जैबिकीय संसार के

अपराध 5

2 हव ; ३37. 5 ५० 5039७, ९. 7२. 35व ४०६३५, प्र, 0., उसके 0शवकुप्रटाटज बाग ए/शक/ 27९25, पंगर, ण॑ एप्आॉं292० ९7९55. टआ29४०, 942.

अपराध और अपराधी |

सामान्य नियमों द्वारा निर्धारित होता है। थिरैशर ने शिकागो में 733 अपराधी मिरोहो का अध्ययन करके यह पाया कि 'ग्रिरोह का स्थान भौगोलिक और सामाजिक परिवतंनीय क्षेत्र बताता है।” उसने यह भी कहा कि गाँवो मे पाये जाने वाले अपराधी गिरोह कोई समस्या पेंदा नही करते परन्तु शहरो में पाये जाने वाले गिरोह यद्यपि सभी अपराध नहीं करते परन्तु उनमें से अधिकाश केवल स्वय अपराध करते हैं परन्तु अन्य लोगों को भी अपराध की शिक्षा देते है। उसके इस कथन से यह सिद्ध होता है कि कुछ विशेष प्रकार के इकालाजीकल पर्यावरण के कारण अपराध होता है और यह विशेष इकालाजीकल पर्यावरण उन समुदायों में पाये जाते हैं जिनका सामान्य पर्यावरण से अपूर्ण अथवा दोषपूर्ण समायोजन होता है शा भी इस विचार से सहमत है उनके अनुसार उन अत्यधिक जनसख्या वाले स्थानों और विघटित शहरी क्षेत्रों में अधिक अपराध मिलता है जो व्यापार के केन्द्रीय क्षेत्रों के समीपवर्ती होते है तथा नगर के वाहरी भाग मे अपराध की दर कम मिलती है। उसने सात स्थानों पर अधिक अपराध पाया?---() वह स्थान जो शहरो के मध्य में स्थित है। (2) जहाँ मकानों का अभाव है अथवा जहाँ गन्दी बस्तियाँ पायी जाती है। (3) जहाँ सामाजिक नियन्त्रण का अभाव है। (4) जहाँ व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं होते। (5) जहाँ वेकारी और निर्घतता अधिक है। (6) जहाँ भौतिक अवनत्ति मिलती है (7) जहाँ विदेशी अधिक रहते हैं! इस तरह उसने यह कहा कि अपराधी क्षेत्र! में अपराध का कारण वैयक्तिक नही परन्तु पर्यावरण ही प्रमुख है। सदरलेण्ड ने शा के इस सिद्धान्त की आलोचना की है। उसने मुझ्य रूप से दो तक॑ दिये है*---(क) 'अपराधी क्षेत्रों! मे पाये गये अपराधी पहले ही से विघटित और असस्तुष्ट तिराश्ावानु व्यक्ति होते है ओर सम्भव है इसी नेरादय के कारण वे अपराध करते हो इस कारण यह किसी प्रकार नहीं माना जा सकता कि 'अपराधी क्षेत्र” में रहने के कारण ही वे अपराधी बनते हैं। (खत) “अपराधी क्षेत्र में अनपराधी क्षेत्र! की अपेक्षा अपराधी दूँढना बहुत आसान है थामस का सिद्धान्त (५४. 7. 7007795'$ 7॥००५)--थामस ने अपराध का कारण 'चार इच्छाएँ' बतायी है / ये इच्छाएँ है--स्नेह की इच्छा, प्रतिप्ठा कौ इच्छा, सुरक्षा की इच्छा और नये अनुभव की इच्छा उसके अनुसार व्यक्ति अपनी श्रेप्ठता ($एए०४०7/५) तो नही परन्तु अपनी समता अन्य लोगों को दिखाना चाहता है। परन्तु अन्य लोगो द्वारा तिरस्कृत किये जाने पर एवं अपनी स्थिति को मान्यता मिलने के कारण केवल निम्न स्थिति के सामाजिक प्रतिष्ठा से वंचित व्यक्तियों द्वारा मान्यता मिलने के कारण वह अपराधी कार्यों को अपने साम्राजिक मान्यता

$ पृता३ह0०ा, ९, *05गाड्ीउ04 7९ए/टडशा।$ & इ००ट्ाय्ज्रांस्डा३ बहाव इ0०९०9१9 ॥ड्ा॥राएाओ शाधच्व व9 2#6 (48 204 व्यधे०्ण, एंकर, (४९३४० ९7653, शारबह8०, 4936. हु

$र 599 ड0व क़ैल:8७, ०. 2

+१ 500ट740, ०7०. ८/६., 459-62.

52 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

और प्रतिष्ठा का साधन मानता है और इस कारण अपराध करता है। थामस का यह सिद्धान्त कुछ अपराधों के लिए तो सद्दी हो सकता है पर सभी अपराधों को स्पष्ट नहीं करता जिस कारण उसके सिद्धान्त को अधिक मान्यता प्राप्त नही हो सकी है। बहुकारकवादी सिद्धान्त (४०४७७ 4०७० ॥॥609)--इस सिद्धान्त की रचना सबसे पहले 925 मे इग्लेण्ड निवासी सिरिल बर्ट ने अपनी पुस्तक 'श०णाह़ 70थाप्रतृप७१४' मे की थी उसके अनुसार व्यक्ति के अपराध का कारण एक नहीं अवितु अनेक हैं (४१ विभिन्न कारणों मे उसने आनुवंशिक कारक, पर्यावरण सम्बन्धी कारक (घर के अन्दर और बाहर के पर्यावरण), शारीरिक कारक (शारीरिक विकास सम्बन्धी व्यवस्था और विघटित शरीर सम्बन्धी व्यवस्था जैसे शारीरिक दोप, तीत्र बीमारी, स्थायी रोग आदि), बुद्धि सम्बन्धी कारक (साधारण से कम या अधिक बुद्धि), स्वभाव सम्बन्धी कारक (अथवा मन कौ संवेगात्मक स्थिति) और संवेग आदि पर बल दिया है | वर्ट के अनुसार ऐमे चार प्रभावक हैँ जिनको किसी भी अपराध में पहचाना जा सकता है) ये है---(3) वह प्रभावक जिसका बहुत स्पष्ट प्रभाव है। (0) प्रमुख सहायक प्रभावक। (प) थोड़ा उत्तेजित करने वाला प्रभावक (५) वह प्रभावक जो उपस्थित तो है पर प्रत्यक्ष रूप से क्रियापश्यील नहीं है। आज के युग में बहुत से समाजज्ञास्त्री और अपराधशास्त्री इस बहुकारकवादी धारणा को मानते है जाजें वोल्ड", अद्वाहमसेन, रेक्लेस, काल्डवैल, आदि इनमें से मुख्य विद्वान है। एक तरह से 884 में इटली के विद्वाचू फेरी ने भी अपनी पुस्तक '0प्रधांशक्ष $0००0०89' में अपराध के विभिन्न कारणों का विवेचन किया था। उसके अनुसार अपराध के चार मुख्य कारण है--() मानवशारत्रीय; जँसे प्रजाति, आयु, लिग, इन्द्रिय और मनोवैज्ञानिक व्यवस्था, (2) भौगोलिक; जैसे जलवायु, तापमान, मौसम आदि, (3) सामाजिक; जैसे जनसंख्या की घनता, जनमत्त, रीति-रिवाज, घामिक मान्यताएँं आदि, तथा (4) आधथिक; जैसे निर्घनता, आर्थिक विकास, औद्योगिक सगठन आदि डोनाल्‍ड टफ्ट का भी कहना है कि अपराध एक सामाजिक घदना है जो व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक लक्षण तथा उसके व्यक्तित्व के ऊपर पर्यावरण के प्रभाव के कारण पेदा होती है ॥(% अलवर्ट कोहेन ने इस बहुकारकबादी सिद्धान्त की आलोचना की है इनका कहना है कि एक-कारकवादी सिद्धास्तों में यद्यपि एक “कारण” पर वल दिया गया है पर उस कारण के लिए बहुत 'कारक' उत्तरदायी बताये गये हैं।? इस त्तरह वह

(706 ॥$ 858879036 ६0 00 अआंहड्डोट प्रशश्टा53] 5000९, 907 जद. ॥0 ६ए0 07 फार4 0 5एगा85 ॥#छत0 8 शोव्ट ऋयाटाज 800 ए४एज।/ एएए 8 ॥0णँ७फालिीक 6 डॉएड्राक्ण0४6 300 ९०0४० ट्टॉणड ्रीप्टालटड>. 0५परा छत, न्‍7म्वह 2लांवृबल्ा, ॥925, 599-600,

*० ९५०१ 560७९, ०9. ८॥ , 305.

5 छताडव 86, $>द्व००९०, 956, ट।9796८7 8.

#एटा६ टणारए, 0श/ब्वल्ल छावें (०४7०, (966), ०7, दा... 809 एशाकरृघ्रका।

०2% (3955),

अपराध और अपराधी 53

कारण” और “कारक में अन्तर मानता है। इसको समभने के लिए हम एक उदाहरण ले सकते हैं। किसी भ्रुवक का परीक्षा में अनुत्तीणं होते का कारण उसका अच्छी तरह ने पढना ही होगा परन्तु इस अच्छी तरह पढने के कारक बहुत हो सकते हैं जैसे पुस्तकों का होना, पढ़ाई में अरुचि, बीमार पड़ जाना आदि इसी तरह शएक-कारकवादी मतोबविकार विश्लेषण के सिद्धान्त में यद्यपि निराजा अपराध का एकमात्र कारण बताया ग्रया है पर यह निराशा क्यों उत्नन्न होती है इसके लिए बहुत से कारक दिये गये हैं। अन्य एक-कारकवादी सिद्धान्तो मे भी यह ही चीज मिलती है। इस कारण बहुकारकवादी सिद्धान्त एक-कारकवादी सिद्धान्त से बहुत भिन्त नही है। दोनों मे यह समझाया जाता है कि एक तथ्य के एक पहलू में आने वाले परिवर्त्य (शध्य/0॥०) दूसरे पहलुओ के परिवरत्यों से कंसे सम्बन्धित हीते हैं कोहेन की आलोचना के अलावा वहुकारकवादी सिद्धान्त की एक और आलोचना भी दी जा सकती है। इसमे हम कोई कल्पना नहीं बना सकते जिसको लेकर आवश्यक तथ्य इकद्ठा कश्के उसको प्रमाणित या अप्रमाणित किया जा सके फिर बहुकारकों में हम हर कारक को उचित महत्त्व भी नहीं दे सकते इसलिए हाल ही मे काल्डवैल* द्वारा बहुकारकबादी सिद्धान्त का संशोधन, कि किन्‍्हीं घुने हुए सांख्यिकीय कारकों को लेकर अपराध समभाया जा सकता है, अधिक वैज्ञानिक सुझाव लगता है।

अपराध के कारक

अपराध के कारकों को हम दो समूहों में रख सकते हैं : एक, प्रत्यक्ष कारक; और दूसरे, अप्रत्यक्ष कारक अप्रत्यक्ष कारक वह है जो सीधे रूप में अपराध पर प्रभाव नही डालते उनका अपराधी व्यवहार मे कार्य भोण द्वितीयक (8९००॥०१४४५) है। जलवायु, तापमान, भूमि आदि कुछ भौगोलिक कारक ऐसे है जिनको इस समूह मे रखा जा सकता है। इसके विपरीत प्रत्यक्ष कारकी का अपराध के कृपर सीधा प्रभाव होता है जिस कारण इनका वैज्ञानिक रूप से अध्ययन भी किया जा सकता है। यह प्रत्यक्ष कारक तीन उप-समूहो में बाँटे जा सकते हैं--शारीरिक, मानसिक और परिस्थिति सम्बन्धी कारक शारीरिक कारको मे प्रतृकता, और शारीरिक दोष जैसे शारीरिक अग्रोग्यता, पुरानी बीमारी, शारीरिक वल का अधिक होना आदि आते है, मानसिक कारकी में मन्द बुद्धि, संवेगात्मक व्याकुलता, मानसिक संघर्ष, भय और नैराश्य जाते हैं; और परिस्थिति संम्बन्धी कारको में पारिवारिक दक्षाएँ, बुरे सम्पर्के, सिनेमा और कामुऊ उपन्यास, निर्धनता और वेकारो, सामाजिक रीति- रिवाज आदि आते है इत सबका हम अलग-अलग उल्लेख करेंगे

६४ (०09४), एफशगेंअज॑ग2>, ००. 2४., 336-55, *

54 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

, शारीरिक कारक

(|) वंशानुकम ([8८7८००॥५७)--875 और 938 के बीच अपराध में बंशानुक्रमण के कार्य को मालूम करने के लिए चार प्रकार के अध्यमन हुए थे-- (क) माता-पिता और उनकी सन्‍्तान के बीच अपराधी सम्पर्क का अध्ययन (स) अपराधियों का '5६४०४४० शियां!9 (766७' से तुलनात्मक अध्ययन (ग) प्रसिद्ध और पतित परिवारों का अध्ययन (घ) समान और असमान लिग की जुडवा सन्तान का तुलनात्मक अध्ययन पहले वाले माता-पिता और उनकी स्नन्‍्तान के अध्ययन में चाल्स गोरिग ने 493 मे अपराधी मनोवृत्ति के विन्वागमम को समभाने का प्रयत्त किया था दूसरे अध्ययन में तोम्ब्रोजो ने अपराधी शारीरिक विश्लेपताओं दीपो को पैत्ुकता द्वारा निर्धारित होना बताया था। तीसरे प्रसिद्ध और पतित परिवारों के अध्ययन में विन्शिप ने एडवर्ड वंश की 7394 सन्तानों का, इसाबूक में ड्यूक बश की 200 सन्‍्तानों का, गोडार्ड ने कललीकाक वंश की 480 सन्‍्तानों के इतिहास के अध्ययन द्वारा अपराध मे पैठृकता का महत्त्व स्पष्ट किया था। चौथे जुड़वा सन्तान के अध्ययन में लागे, फीमेन, न्‍्यूमेन और हालजिन्गर, तथा क्रान्ज आदि ने समाने और असमान लिंग की जुड़वा सनन्‍्तान का अध्यमन करके केवल पैतृकता का अपराध में विवेचन किया, परन्तु यह भी सिद्ध क्रिया कि समान लिग्र की जुड़वां

सन्तान में असमान लिंग की जुड़वा सन्तान की अपेक्षा अपराधी व्यवहार मे अधिक एकरूपता होती है

इन सभी अध्ययनों का भुख्य दोष यह है कि इनमे सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और परिस्थिति कारक को अवहेलना की गयी है | किसी भी व्यवहार को, चाहे वह अपराध ही क्‍यों हो, पैतृकता और पर्यावरण दोनों के सम्बन्ध के आधार पर ही समझाया जा सकता है। ऐशले माटेगू का भी कहता है कि अपराध एक सामाजिक घटना है, जैविकीय घटना नहीं क्योकि इस वात को मानने का कोई भी प्रमाण नहीं

है कि अपराध करने के लिए कोई मनोवृत्ति को पंतृकता द्वारा प्राप्त करता है

इसका यह अर्य भी नही है कि वंशानुक्रमण का अपराध मे कोई महत्त्व नहीं है ).कुछ ऐसे आनुवंशिक लक्षण सम्भव हो सकते है जिनका अपराधी व्यवहार पर अप्रत्यक्ष प्रभाव हो सकता है। आजकल जो विचारक वहुकारकवादी घिद्धान्त को मानते हैं उनका भी यह कहना है कि उन विभिन्न कारणों में से, जिनके कारण अपराध होता है, वंशानुक्रमण एक कारण है।

(2) शारीरिक प्रयोग्यता (77५आं०७॥ ०075807/9)--श्ारीरिक अयोग्यता जैसे हृष्टिहीनता, वहरापन, लगड़ापन, गंजापन आदि के कारण जब व्यक्तियों को तिरस्कृत किया जाता है या उनको चिढाया छेड़ा जाता है तो वे अपना सन्तुलन खो बैठते हैं अथवा सामान्य सम्पक्कों से किनारा कर लेते हैं। इसके कारण उनमें पैदा हुई हीवता की भावना उनके व्यक्तित्व को ही बदल देती है। नये उत्पन्न विचारों

85॥69 ०3३००, 7कह 4#707, ५०१. 7, 5:50 94.

अपराध और अपराधी 55

और घारणाओं के कारण वे समाज-विरोधी कार्ये करते लगते हैं।

(3) पम्भीर रोग (8०४४० ॥॥7655)--गम्भीर रोग के कारण व्यक्ति दिवा- स्वप्त देखने लगता है जिसके कारण उसके व्यक्तित्व में मायावी और असत्य कल्पनाओं का विकास होता है। दिवा-स्वप्न व्यक्ति को केवल सुस्त बनाता है पर उसे प्रतिहिसात्मक आदि कार्य करने के लिए भो बाध्य करता है

(4) शारीरिफ घल फा शधिक होना (0००७५ फाएअंत्य &धथाह॥)-- सिरिल वर्द के अनुसार अधिक शारीरिक बल होने के कारण व्यक्ति में धमण्ड और

श्रेप्ठठा की भावना उत्पन्न हो जाती है। यह भावना ही उसे मार-पीट जैसे अपराधों की प्रेरणा देती है

2. सानसिक प्गरक

(१) मन्द बुद्धि--मन्द बुद्धि व्यक्ति की वह अवस्था है जिसमें मानसिक विशास की कमी के कारण बहू समाज की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर पाता मन्द बुद्धि मानसिक आग के आधार पर तीन स्तर पर विभाजित की गयी है-- (क) इडयासी (0009)--वह व्यक्ति जो सर्देव तीत साल से कम आयु वाले बच्चे की तरह व्यवहार करता है। (ख) इम्बेसि लटी (770४०॥॥५)--वह व्यक्ति जो स्देव तीन साल से ऊपर और सात साल से कम आयु वाले बच्चों जेँसा व्यवहार करता है। (मं) मोरोन्टी (707077/५)--वह्‌ व्यक्ति जो सर्देव सात साल से ऊपर और बारह साल से कम आयु वाले बच्चे जैसा व्यवहार करता है इनमें से किसी भी स्तर के मन्द बुद्धि होने के कारण व्यक्ति अपने कार्यों को समाज द्वारा मान्यता प्राप्त तरीकों से नहीं कर पाता वह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए असामाजिक तरीकों के प्रयोग मे कोई हानि नही समझता और यह अवेध तरीके ही उसके अपराध का कारण हीते हैं। साइकोसिस ओर न्यूरासिस जेसे मानसिक रोगो के कारण अथवा साइकोपेधिक व्यक्तित्व होने के कारण भी व्यक्ति अपशध करते हैँ। 932-35 के बीच ब्राम्वर्ग और थाम्सन द्वारा न्यूयार्क मे 9658 केदियों के अध्ययन में ]7'7 प्रतिशत अपराधियों में मानसिक रोग पाया गया इनमें से :5 प्रतिशत साइकोटिंक थे, 6.9 प्रतिशत न्यूराटिक थे, 6:9 प्रतिशत साइकोपेथिक व्यक्तित्व बाते थे और 24 प्रतिशत मन्द बुद्धि वाले व्यक्ति थे ।?९

(2) संवेगात्मक घ्याकुलता प्लौर नेराश्य--कभी-कभी किसी घटना के आकश्मिक घटने के कारण व्यक्ति संवेगात्मक रूप से व्याकुल हो जाता है और अपने ऊपर नियन्त्रण खो बेठ्ता है जो उसे अच्छाई और चुटराई मे अन्तर मालूम होने नहीं देता ऐसी अवस्था में यदि वह कोई अपराधी कार्य कर बैठे ती आश्चर्य नहीं एक केंदी को उसके दण्ड की अवधि समाप्त होने पर भी जब जेल के अधिकारी उसे जेल

70 छाणग्रएटा३, 9४, क्राव फ्०च्नए४००, 0. छ., *+र कशंगांगा ता -

ग्रल्जाबो तेट[०८०६ बवाव॑ एडा500459' ,ल्‍(९3 ९० दागार', -ग्कादा रण टलाड्वा डक ७००2७ चं१४-7 णाढ 937, 70-89.

सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

से छोडें और उनके आनाकानी के कारण वह कंदी सवेगात्मक व्याकुलता के कारण भागने का प्रयत्न करे तो उसका कार्य जेल के तियमों के अनुसार अपराध ही कहलायेगा

(3) भय--भय के कारण व्यक्ति डरपोक, पड्यन्त्र रचने वाला, असम्मत और शर्मीला बन जाता है। डारबिन का भी कहना है कि 'भय से हृदय की गति बढ जाती है, चर्म (धंधा) पीली हो जाती है, सिर के बाल खड़े हो जाते हूँ, दरीर कापने लगता है और आतक की भावना बढ जाने के कारण व्यक्ति असामाजिक कार्य करता है।'

(4) पश्रनुकरण झौर सुझाव--कभी-कभी अन्य व्यक्ति द्वारा दिये गये सुझाव के कारण अपने विवेक और तक के विरुद्ध कोई व्यक्ति चोरी, हत्या या मारपीट जंसे अपराध वर बैठता है। इसी प्रकार अन्य व्यक्ति की नकल करना भी अपराधी व्यवहार का कारण बन जाता है। परन्तु सुफाव और नकल के आधार पर व्यवहार करने में व्यक्ति की आयु, लिग, बुद्धि आदि जैसे कारक महत्त्वपूर्ण होते है। एक बालक मे सुझाव को मानने की क्षमता एक युवा पुरुष से अधिक ही होती है। इसी तरह कम बुद्धि वाला व्यक्ति अधिक बुद्धि वाले व्यक्ति की तुलना में अन्य लोगो की आसानी से नकल करता है। इसके अलावा सुझाव, थकावट, भूख, नोद की कमी आदि जैसी आस्तरिक व्यवस्था से भी प्रभावित होता है। ,

(5) सानसिक संघर्ष--जब व्यक्ति किसी समस्या को सुलझाने के लिए दो उपलब्ध हलो मे से किसी एक हल का चुनाव नही कर पाता तो उसके मस्तिष्क में संघर्ष उत्पन्न हो जाता है और कभी-कभी यह सघप इतना तीब्र हो जाता है कि बाध्य होकर वह ऐसा अपराधी व्यवहार कर बैठता है जो सामान्य स्थिति मेन करता मान लीजिए एक व्यक्ति की पत्नी और उसकी माता में कलह है; व्यक्ति यह निश्चय

नहीं कर पाता कि माता का साथ दे या पत्नी का, ऐसी अवस्था मे कभी वह अपनी पतली की ह॒त्या ही कर देता है यह अपराध उसके मानसिक संधप के कारण हुआ

3, परिस्थिति-सम्बन्धी कारक

परिवार--व्यक्ति का प्रारम्भिक समाजीकरण ही मौलिक एवं मूलभूत होता है समाजीकरण के विभिन्न साधनों मे परिवार सवसे महत्त्वपूर्ण है क्योकि व्यक्ति अपने परिवार से जीवन के प्रथम चरण से लेकर अन्त तक बहुत अधिक सम्पक में रहता है। वह्‌ उसके मुल्यों आदर्शों आदि को , निर्धारित कर उसके मानवोचित विकास को सम्भव करता है इसी कारण अपराध-शआ्ञास्त्रीय शोध मे वयस्क-अपराध और वाल-अपराध के पारस्परिक सम्बन्ध अथवा बाल-अपराध और परिवार के पर्यावरण शिश्वु के पालन-पोषण की प्रक्रियाओं के सम्बन्ध में अध्ययन पर वल दिया जाता है। पारिवारिक जीवन निम्न प्रकार विभिन्न तरीकों से अपराध उत्पन्न कर सकता है--_,

() परिवार में वे घारणाएँ, मूल्य व्यावहारिक प्रक्रियाएँ उपलब्ध हैं जो अपराध सिखाने मे सहायक होती है। व्यक्ति उन प्रक्रियाओं को अपनाकर केवल इस

अपराध जौर अपराधी पा

कारण अपराधी बनता है क्योकि उसने परिवार मे अपराध करना सीखा है।

(2) परिवार व्यक्ति की समाज में सामाजिक बर्ग-स्थिति को निर्धारित करता है। यह स्थिति ही उसके परिवार के वाहर प्राथमिक सम्बन्धों को निश्चित करती है। यदि व्यक्ति एक निम्न आर्थिक सामाजिक वर्ग का सदस्य है तो वह ऐसे प्राथमिक समूहों के सम्पर्क मे सकता है जो समाज द्वारा मान्यता-प्प्त मूल्यो को नही अपनाते इन्ही के सम्पर्क में वह अपराध की ओर प्रवृत्त हो जाता है।

(3) परिवार व्यक्ति के कुछ प्रकार के सामाजिक सम्बन्धो के धृर्वाधिकारों की भी प्रभावित करता है। परिवार से ही व्यक्ति अन्य व्यक्तियों की आवश्यकता अनावश्यकता का, भाषा, व्यवसाय, राष्ट्रीयता लक्षणों के आधार पर उनका मूल्यांकन करना सीखता है। कुछ प्रकार के लोगो के प्रति यह विशेष प्रकार की प्रक्रिया करना सीखता है यह ही पूर्व विचार उसके अपराधी बनने की राम्भावना प्रभावित करते हैं। घर के बाहर जिन व्यक्तियों को ऊँची स्थिति प्रदान कर उनसे प्राथमिक सम्बन्ध स्थापित करता है, यदि उनकी धारणाएँ और भूर्य असामाजिक हैं, तब उसके स्वयं के अपराधी बनने की सम्भावना अधिक होती है।

(4) परिवार व्यक्ति के रहने के लिए सामान्यतः संगठित और सुसमी घर प्रदान करने में असफल हो सकता है। यदि परिवार में सदस्यो के पारस्परिक घृणित अनिष्ठाकारी सम्बन्ध है, चाहे वह पत्नी के कारण हो या सनन्‍्तान ये? कारण अथवा माता-पिता के कारण, तो व्यक्ति घर छोड़कर जाना चाहेगा तथा घर में रहते हुए भी अपने को सदस्यों से अलग रखेगा। ऐसी परिस्थिति में घर से बाहर किस प्रकार के व्यक्तियों के संस में आता है, यह निर्धारित करेगा कि वह अपराधी बनेगा अथवा नही

(5) परिवार व्यक्ति को नैतिक तथा आध्यात्मिक शिक्षा देकर समाज का सक्रिय सदस्य बनाने मे असहायक रहा हो | सही देस-भाल के अभाव में आवश्यकता से अधिक सुरक्षा होने के कारण अथवा तिररक्षत्त किये जाने के कारण बह समाज के निममों को नही सीज सका हो ऐसे “निष्पक्ष' व्यक्ति का क्षपराधी अनपराधी बनना उसके घर के बाहर प्राथमिक सम्बन्धों पर निर्भर करता है। परिवार में बच्चों को 'निष्पक्ष' व्यक्ति नही परन्तु अनपराधी व्यक्ति बनने की शिक्षा की आशा की जाती है। अपराधी प्रभावों के विरोध करने को शिक्षा के अभाष में बह स्वयं अपराधी व्यवहार स्वीकार करता है। इरा प्रकार परिवार की दरिद्रता, विच्छिन्न परिवार, कठोर नियन्त्रण, मनोवैज्ञानिक अथवा संवेगात्मक व्याकुलता अपराधी बनने की परिस्थित्तियाँ पंदा करते हैं

ध्यक्तितत भर पर्यावरण सम्बन्धी कारकों का पारस्परिक सम्बन्ध

' व्यक्तिगत और पर्यावरण सम्बन्धी कारकों का उपर्युक्त उत्लेख यह करता है कि केवल एक कारक अपराध उत्तपन्त नहीं करता परन्तु सभी , का अलग महत्त्व है। प्रत्येक कारक की प्रकृति और उराके अन्य कारकों से

58 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवतंन

भिन्नता है। जिस कारण इन सभी का अपराध में महत्त्व अलग-अलग मिलता है। रेकक्‍्लेस भी इस विचार का समर्थन करता है।” व्यक्तिगत कारकों का अपराध में इसलिए प्रभाव है कि वे व्यक्ति के समायोजन सम्बन्धी क्षमता को कम करते हैं और पर्यावरण सम्बन्धी कारकी का प्रभाव इस कारण है कि वे उसकी आवश्यकताओं की पूि मे बाधाएँ डालते है और इस प्रकार के मूल्य पेदा करते है जो उसकी सगठित समाज के मूल्यों से सघर्ष में लाते है। इन सबसे यही निप्कर्प निकलता है कि मनुष्य का अपराधी व्यवहार उसके व्यक्तिगत और पर्यावरण सम्बन्धी कारकों से विकसित होता है, फिर चाहे किसी अपराध मे व्यक्तिगत कारक अधिक हों या पर्यावरण सम्बन्धी कारक

अपराधियों की दण्ड-व्यवस्था

काल्‍डवैल के अनुसार 'दण्ड वह सजा है जो राज्य उस व्यक्ति को देता है जिसे अपराधी घोषित किया गया हो ।/”* दण्ड देने की तीन विचारधाराएँ बताई गयी है-

() दण्डात्मक विचारधारा (?ए्रं/५० 4060०8५)--इसके अनुसार अपराधी को दण्ड देना इसलिए आवश्यक है क्योकि (क) वह व्यक्ति की सम्पत्ति और जीवन के लिए एक खतरा है और फिर वह सुधारा भी नही जा सकता है। (ख) वह समाण के लिए एक खतरा है और समाज की सुरक्षा के लिए उसको दण्ड देना आवश्यक है

(2) निरोधात्मक विचारधारा (27९४८७४४७ 0०००१५)--अपराधी को दण्ड देना इस लिए आवश्यक है जिससे (क) उसे दोबारा अपराध करने से रोका जा सके और (ख) अन्य व्यक्तियों को भी शिक्षा मिल सके कि वे अपराध की ओर प्रवृत्त हो

(3) चिफित्सा-सम्बन्धी विचारधारा (॥#&०99८०४० 706००४५)--इसके अनुसार अपराधी की तुलना एक रोगी से की जाती है! जिस प्रकार रोगी के रोग को क्षणिक मानकर उसकी चिकित्सा की जाती है उसी प्रकार अपराधी के अपराध को भी रोग मानकर उसका उपचार किया जाता है। है

होम्स के अनुसार “दण्ड का मुस्य उद्देश्य निरोधात्मक है।! नीमेसिस के अनुसार “दण्ड का उद्देश्य है अपराधी को यह बताना कि अच्छे कार्य के लिए सर्देव पुरस्कार मिलता है और बुरे कार्य के लिए उसे उसका फल भुगतना पड़ता है ॥*

इस तरह अपराधी को दण्ड देने की आवश्यकता के लिए भिन्न-भिन्न मत हैं

2२ १५८ ॥09397 #3४८ (0 बकजात00 6 इट३7९ं) (06 ९३७६३ ॥0 ऐट 20॥0टाॉए एम 28 5(039 ता (]८ (टाएणा३ दी ऋरगाड ॥00 6फ़बाध्माह छज 9्रताशंरफ॥)5 ऐटएणतार दाक्रांग9$ व्यय 02058 (रह हं5६ 0 0०९००चाह दाग, ह८८६।८५5, शादा ९.५ टनाए्ं 20#9/०४४, 8.

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अपराध और अपराधी 59

एक मत के अनुसार अपराधियों को दण्ड देना एक धामिक उत्तरदायित्व है। दूसरे मत के अनुसार अपराधी को दण्ड देना इसलिए आवश्यक है जिससे वह पश्चात्ताप करे और पुनः ऐसा कार्य करे काण्ठ के अनुसार अपराधी को नैतिक तियमों के उल्लधन के लिए दण्ड देना आवश्यक है | हीगल के अनुसार दण्ड इसलिए आवश्यक है कि जिससे क्षति के प्रभाव को नप्ठ किया जा सके | वेकेरिया के अनुसार दण्ड समाज की रक्षा के लिए आवश्यक है। गैरोफैलो के अनुसार अपराधी को दण्ड देने से उसकी अपराधी प्रवृत्ति पर आघात लगता है।

इन्ही विभिन्न उद्देश्यों के आधार पर दण्ड के मुख्य रूप से चार सिद्धान्त दिये गये है---

() प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त (र०४४0पध४०७ ॥॥००५)--इस सिद्धान्त का आधार है 'दाँत का दाँत और आँख के लिए आँख” तथा “बदले की भावना (7८एशा8०) जिससे अपराधी को अपने अपराध की भीपणता का आभास हो सके बदला इसलिए भी आवश्यक समभा जाता है क्योंकि (क) व्यक्ति ने कानून का इल्लघन किया है और किसी को हानि पहुँचाई है। (ख) क्योकि समाज के श्रति अपने कर्तव्य का वह पालन नहीं कर सका है। (ग) यदि अपराधी को दण्ड नही दिया जायेगा तो जो व्यक्ति अपराध का भिकार हुआ है वह स्वय या उसके सम्बन्धी अथवा साथी अपराधी से बदला लेने के लिए स्वयं कानून तोड़ेगे या फिर समाज को अपना सहयोग प्रदान नही करेंगे क्योकि समाज ने उनकी रक्षा नही की

इस सिद्धान्त की सिडविक, मंकेन्ज़ी आदि ने आलोचना की है। सिडविक का कहना है कि “दण्ड का उद्देश्य बदले की भावना होकर समाज की रक्षा करना हीना चाहिए ॥! मकेन्ज्ी* का भी कहना है कि अपराधी को दण्ड बदले की भावना से नही दिया जाता परन्तु इसलिए दिया जाता है कि उसे यह आभाम हो सके कि वह दण्ड उसके स्वयं के कार्य का परिणाम है। इसी से वह पश्चात्ताप भी करेगा और भविष्य में पुनः अपराध करने से भी रोका जा सकेगा

(2) निरोधात्मक सिद्धान्त (शा०्एथय४४० 7॥0०५)--इस सिद्धान्त के अनुसार क्‍योंकि अपराधी सुधार के अयोग्य होने के कारण कभी नहीं सुधारा जा सकता इसलिए उसे समाज से अलग करने के लिए भृत्यु-दण्ड अथवा जीवन भर के लिए कारावास देना चाहिए। इन सिद्धान्तों के मुल मे यह भावना निहित मालूम होती है कि 'व होगा बाँस वजेगी वॉसुरी'। परन्तु चूँकि आजकल अपराधी के विचलित व्यवहार के कारण कुछ सामाजिक कुछ व्यक्तिगत माने जाते हैं इसलिए यह कहा जाता है कि इन कारणों को दूर करने से ही अपराधी को सुधारा जा सकता है। इसी मान्यता के कारण दण्ड का निरोधात्मक सिद्धान्त कोई नही मानता

(3) भ्रतिरोधात्मक सिद्धान्त (9लल्ापाधा परश०णा9)--इस सिद्धान्त का उद्देश्य है केवल अपराधी को दण्ड देकर पुनः अपराध करने से रोकमा परन्तु

88 द्यरांट, 377०० 2/ 520८5, 4933, [.00007, 366,

60 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

उसी दण्ड के भय द्वारा अन्य व्यक्तियों को भी अपराध की ओर प्रवृत्त होने से रोपना। जान सासमण्ड ने भी इस विचार का शमर्थन किया है। उगका पहना है कि “दण्ड का प्रमुस उद्देश्य है गलत कार्य करने वाले (८्शी-त०ट) को उद्यहरण बनाकर अन्य व्यक्तियों को चेतावनी देता ।/ इसलिए इस शिद्धान्त को सानने बाले अपराधी को सार्वजनिक स्थान में कठोर दष्ड देने के पक्ष में हैं। परन्तु पस सिद्धान्त को भी अब अधिक नहीं माना जाता क्योंकि अधिकांश अपराध भावनात्मक होते हैं और इन अपराधों में दण्ड प्रतिरोधक कार्य नहीं कर सफता है। अपराधी फो बहुत गम्भीर अपराध के लिए मृत्यु-दण्ड देने कय उद्देश्य भी प्रतिरोधन है। परन्तु जिन देशों में मृत्युल्षण्ड की प्रथा को समाप्त कर दिया गया वहाँ अपराध की दर में कोई यृद्धि नही हुई है। उदाहरण के लिए इटलो में मृत्यु-दण्ड 890 में समाप्त कर दिया गया था पर 933 में मुमोलिनी ने उगे फिर घुरू किया। 945 में उसे फिर समाप्स कर दिया गया। इसके सत्म होने से गर-दृत्या की संख्या बढ़ने की अपेक्षा कम हो गया। 945 में जब 237 हत्याएँ हुई थीं, 954 में केवल 46 हत्याएँ ही हुईं इसी प्रकार की चीज भारत में श्रावनकोर राज्य में 944 मे मृत्यु-दण्ड समाप्त करके 950 में किर से उसे शुरू करने पर मिली इससे सिद्ध होता है कि मृत्यु-दण्ड अयबा किसी भी प्रकार के गम्भीर दण्ड का प्रतिरोधक मूल्य अधिक नही होता

(4) सुधारात्मकफ सिद्धान्त (सिटणायग/४० प॥९0५)--अधिकांशतः दण्ड अपराधी को अपराध करने से रोकने के वजाय उसे समाज का क्षत्रु बना देता है। इसलिए बहुत से विद्वानु अपराधी को दण्ड देकर उससे बदता लेने की अपेक्षा उसको सुधारने के पक्ष में है। इस सिद्धान्त की रचना आजकल माने हुए अपराध के साभाजिक व्यक्तिगत कारकों पर ही आधारित है। व्यक्ति के अपराध के कारणों को वेज्ञानिक रूप से मालुम करके उन्हे वैज्ञानिक रूप से ही दूर करना चाहिए। अपराधी के केवल दरीर और मन को कप्ट पहुँचाकर उसे सुधारा नहीं जा सकता जेम्स सेठ का भी कहना है कि अपराधी का सही सुधार तभी सम्भव है जब वह दण्ड को स्वर्य सही और आवश्यक समझे ।४

अपराध के प्रति दण्ड की प्रतिक्रिया अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग समय मे बदलती रहती है | सदरलेण्ड ने इसको “सांस्कृतिक स्थायित्व के” तत्त्व के आधार पर समभाया है इसके अनुसार कानून के उल्लंघन के प्रति समाज की प्रतिक्रिया और इस प्रतिक्रिया को,अभिव्यक्त करने की विधि अथवा दण्ड की प्रकृति समाज से मान्यता:

प्राप्त व्यवहार के योग्य होती है ।'" उदाहरण के लिए पन्द्रहवी और सोचहवी

२8 जप ७6 ढणिएशाता (रत था 9विटावंटा] ९००८३ ०79 ज्योंग [९ 8००:एशा]ए6 रण एण्प्राह्नधाशाई 5५ गधात खाते वैदबा,.. वद्ाल ॥0क्‍डगध४ 502०७ छए०॥ शाह शाह पा05६ 96९णाड 8 ॥७१870९7६ 0 ध6 शिक्षा एएग वगिड९।न 750 0६ धीट्लीएड 85 था बहा. ॥. 98. उर्टाएचाबा।णा-". उग्ा९$ ला, # उनकी थी डकार गीडारफाॉरड &.379फ7४०, 39, 332.

28 इप्रंचिष्ा]304, ०9. ८7, 298-300.

लॉ

कै अपराध और अपराधी 6]

शताब्दियों में शारीरिक कप्ट व्यक्ति का स्वाभाविक अंध (00) समझा जाता था जिसके कारण उस काल में अपराधियों को कठोर दण्ड दिया जाता था। आधुनिक काल मे क्योकि हमारी प्रतिक्रिया भिन्न है इस कारण दण्ड की प्रकृति भी बदल गई है।

चार्त्स बर्ग तथा पाल रेवाल्ड ने इसको 'बलि के बकरे' के तत्त्व से सम्बन्धित किया है इसके अनुमार दण्डात्मक प्रतिक्रियाओं में भिन्नता का सम्बन्ध लिगीय और आक्रमण की मूल प्रवृत्तियों की तृप्ति से है। जब समाज इन प्रवृत्तियों की तृप्ति के लिए व्यक्तियों को साधन उपतब्ध नही करता तब वे उनकी पूर्ति के लिए अपराधी को वलि का वकरा बनाते हैं और उसके लिए कठोर दण्ड निर्धारित करते हैं; परन्तु जब घनके लिए पूरे साधन जुटाये जाते है तब अपराधी को दण्ड साधारण दिया जाता है | परन्तु इस (दण्ड में भिन्नता पर आधारित) सिद्धान्त को आजकल कोई नही मानता कुछ अन्य लोगो ने फिर दण्ड की विभिन्नता को समाज की आधिक दशा अथवा समाज मे निस्‍्न मध्य वर्ग की प्रधानता तथा समाज में श्रम- विभाजन में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर समझाया है।

भारत में दण्ड-ब्यवस्था

भारत में प्राचीन काल, मुस्लिम काल और ब्रिठिश काल में दण्ड की व्यवस्था अलग-अलग थी प्राचीन भारत में अपराधियो को दण्ड राजा ही दिया करते थे। देण्ड अधिक गम्भीर नही होते थे कोड़े मारता, यन्त्रणा देना, शरीर के अग काटना आदि जैसे दण्ड नही दिये जाते थे, परन्तु कुछ अपराधों के लिए देश विष्कासन की सजा दी जाती थी चीजों में मिलावट और वेश्यादृत्ति इतने गम्भीर अपराध माने जाते थे कि उनके लिए मृत्यु-दण्ड दिया जाता था। ब्राह्मण काल मे ब्राह्मणों को दण्ड में कुछ रियायतें दी गयी थी | किसी भी गम्भीर अपराध के लिए उनको मृत्यु- देष्ड नही मिलता था और राज्य उनकी सम्पत्ति को जब्त करता था। बहुत गम्भीर अपराध के लिए अधिक से अधिक उतका प्षिर गंजा कर दिया जाता था इसरी ओर श्ुद्रों के छोटे-छोटे अपराधों के लिए गम्भीर दण्ड निर्धारित थे। मुस्लिम काल में कुरान में दिये गये नियमों के आधार पर दण्ड निर्धारित था। यद्यवि अकबर के समय में दण्ड गम्भीर नही था परन्तु औरमजैब के राज्य मे अपराधियों को क्षेर या चीते से लड़वाना, जिन्दा दीवार में चुन देना, हाथी के पाँवों तले कुचलवाना आदि दण्ड के तरोके भी प्रयोग में लाये जाते थे ब्रिटिश काल में इन यब्ञ्रणा देने वाले तरीकी को समाप्त कर दिया गया तथा कैद करने पर अधिक बले दिया गया। जेलो में सुधार करके उनके द्वारा अपराधियों का सुधार किया जाने लगा। इन सुधारात्मक तरीको का अब हम अलग उल्लेख करेंगे

अपराधियों का सुधार

आधुनिक काल में अपराधियों का सुधार इस घारणा पर आधारित है कि कोई भी अपराधी सुधार के अयोग्य नही है तथा उसके व्यक्तित्व और पर्यावरण का

62 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

अध्ययन करके उसके अपराधी व्यवहार को रोका जा सकता है और उसे समाज का नियम-पालक सदस्य वनाया जा सकता है इस तरह अपराधियों के प्रति हमारा आज का हृष्टिकोण घृणा, झजत्रुता, द्वे प, विरोध जैसी धारणाओं पर आधारित होकर दया और सहानुभूति जैसी भावनाओं पर आधारित हैं। इन्ही नयी घारणाओं के आधार पर आज के बन्दी-गहो, परिवीक्षा (90090०7) तथा परोल (70०) की सेवाओं और अन्य सुधारवादी सस्थाओं का सगठन किया गया है यहाँ पर हम अपराधियो के सुधार के लिए अपनाये यये दो प्रकार के प्रयत्नों का उल्लेख करेंगे--- (क) जैलो में सुधार, (ख) प्रोवेशन की सेवाएँ जैल प्रणाली--ब्रिटिश कान से पहले अपराधियों को बन्दी-गहों में रखना उनके सुधार का साधन नहीं परन्तु बन्दी बनाये रखने का तरीका माना जाता था। इस कारण उस समय की जेलो की व्यवस्था जाज की व्यवस्था से बिल्कुल भिन्न थी। जेलो में अपराधियों के वर्गीकरण पर तथा लिंग, आयु अपराध की प्रकृति के आधार पर पृथककरण पर कोई बल नही दिया जाता था। खाने, पहनने कार करने की व्यवस्था पर भी विशज्ञेप ध्यान नहीं दिया जाता था। सफाई और स्वास्थ्य की दशाएँ भी अत्यन्त असन्तोपजनक थी 838 में सारे भारत में केवल 286 जेल थी जिनमें लगभग 75,000 अपराधियों को रखने की व्ययस्था थी जेलो में रखे गये कुल अपराधियों में से 85 प्रतिशत से अधिक अपराधियों से पत्थर बूटने और सडके बनाने का ही कार्य लिया जाता था। परन्‍्तु अंग्रेजों ने अपराधियों के सुधार में जेलो को एक मुख्य साधन मानकर उनमें बहुत से सुघार किये 836, 864, 877, 888 और 99 में विभिन्न जेल सुधार समितियों की नियुक्ति कर जेलो में बहुत से सुधार किये गये विभेषकर 99-20 के जेल कमेटी की सिफारिशों के आधार पर साने, रहन-सहन, प्रशिक्षा, मनोरंजन आदि व्यवस्था में परिवर्तन किये गये | इस कमेटी द्वारा दिये गये कुछ सुझाव इस प्रकार थे-८ ([) वेड़ियो और कठोर कार्य पर भ्रतिबन्ध लगाये जाएँ। (2) रात को काल कोठरी में यन्‍्द रखना समाष्त किया जाये | (3) बीमारी के लिए जेल के अन्दर ही चिकित्सा का प्रबन्ध किया जाये। (4) आयु, लिय आदि के आधार पर अपराधियों का पृथकरण किया जाये (5) दण्ड के काल में छूट की व्यवस्था घुरू की जाये ) (6) अपराधियों यो अपने रिश्तेदारों से सम्बन्ध स्थापित रखने के लिए प्र लिसने तथा मिलने की सु्िधाएँ दी जाएँ। (7) पच्चीस वर्ष से कम आयु वासे अपराधियों के लिए शिक्षा गा प्रन्‍न्ध रिया जाये। (8) अच्छा सावा और कपड़ा देना चाहिए। (9) विचाटा- घीग अवराधियों वी दच्दित अरशधियों से अलग रखा जाये | (0) प्रोवेशन और पैगेस गेवाओं की स्थवमस्या वी हाये। (]) जेजो में बेतन बरी व्यवस्था बरनी चाहिए इनमे से लगझग समझो ग्रुमायों षो बाद में कार्मान्यित भी किया गया आरदव में आयिरस तीत धर मे मेल मिलते ईैं--(7) नपित सूरझा बाले पर हक, (२) मध्यम सुरक्षा वाते यरद जे अयवा आई्श बन्दी-य€, और (3) बहा » एुरश्य बात के अदवा शुे इन्दीनुहे। संणगे अधि सुरक्षा बाले जेवों जन

अपराध और अपराधी 53

निम्न सक्षण पाये जाते है--दण्डित और विचाराधीन अपराधियों का पृथवकरण, निवाड़ दरी बनाने, वढई चुहार का कार्य सिसाने तथा रंगाई आदि के प्रशिक्षण के प्रबन्ध, रिश्तेदारों से मिलने की व्यवस्था, अच्छे खाने सफाई का प्रबन्ध तथा कुछ जेलों में वेतन व्यवस्था का प्रवन्ध आदर्भ बन्दी-गृहों में साधारण जेलो को अपेक्षा स्वतस्त्र वातावरण व' आत्म- निर्भरता के प्रयास मिलते हैं। यहाँ वेतन की व्यवस्था व. फ्चायत का संगठन भी मिलता है। अपराधियों के नियस्त्रण का कार्य स्वयं अपराधियों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों तथा पंचायतों को देकर अपराधियों का सहयोग प्राप्त करने के लिए एक भनोवज्ञानिक तरीका अपनाया गया है। लगभग हर राज्य मे एक आदर्श बन्दीशह मिलता है। उत्तर प्रदेश में ऐसा जेत लखनऊ में, महाराष्ट्र में यरवदा में तथा राजस्थान में अजमेर मे मिलते है (अजमेर आदर्श बन्दी-गृह दिसम्बर 956 भे स्थापित किया गया था) इन आदर्श वन्दी-यृहों में उन्ही अपराधियों को रखा जाता है जिनका व्यवहार साधारण जेल में सन्‍्तोषजनक पाया जाता है। यहाँ पुस्तकालय, अस्पताल, पंचायत, कंप्टीन तथा पढ़ाई क्षादि की विश्लेप व्यवस्था मिलती है अपराधियों से कृपि सम्बन्धी कार्य करवाने के अतिरिक्त उन्हें कुछ उद्योग-धन्धो में भी प्रश्चिक्षण दिया जाता है। नेतिक और घामिक व्याख्यानों के लिए कभी-कभी वाहर से कुछ व्यक्तियों को बुलाया जाता है। काम करने के लिए प्रतिदिन कुछ पैसे दिये जाते है। अपराधियों की छटनी के लिए एक स्वागत सत्कार केन्र (००९७० <था०) भी होता है। खुले वन्‍्दी-एृह्‌ अधिक सुरक्षा वाले जेज्ो और आदर्श बन्दी-गहो से इस भ्रकार भिन्न है कि (!) उनमें अपराधियों को भागने से रोकने के लिए लम्बी दीवारो, तारो और चौडीदारों आदि डैसे कोई विशेष प्रवन्ध नहीं किये जाते (2) जयराधी स्वय वेतन कमाकर अपने खामे-पीने आदि का प्रबन्ध करते है। (3) अपराधी अपने परिवार के सदस्यों को अपने साथ रख सकते है (4) अपराधियों को समाज के ताथ सम्पर्क स्थापित करने की पूर्ण स्वतन्त्रता दी जाती है। इन सब उपायों का अपराधियी के सुधार पर एक भनोवेज्ञानिक्र प्रभाव पड़ता है। इन लक्षणों के कारण जुने वन्दी-गहो में उन अपराधियों को ही रखा जाता है जो 2 वर्ष से ऊपर तथा 30 वर्ष से कम होते है, जिनका व्यवहार साधारण कारावास में असन्तोपजनक नहीं पाया जाता, जो शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होते हैं, जो स्वय कार्य करके वेतन कमाकर अपने खाने, कपड़े आदि का प्रबन्ध करना चाहते है तथा जिनकी सजा की अवधि कम से कम नौ मास दोष रह गयी है खुले बन्दी-ग्रहों को स्थापित करने के मुख्य उद्देश्य ये बे--() अच्छे व्यवहार के लिए प्रतिफल देना, (2) आत्म- निर्भरता और उत्तरदायित्व की शिक्षा देना, (3) ऐसा कृषि व्यवसाय सम्बन्धी अशिक्षण देना जो जेल से छूटने के बाद अपराधी को समाज में फिर से बसाने में फहायता करें, तथा (4) सार्वजनिक योजनाओं 'के लिए भरोसे वाला श्रम (पच्एल्ातबछ6 [89007) जुटाना

64 सामाजिक समस्याएं और सामाजिक परिवर्तत

इस प्रकार का सबसे पहला खुला जेल उत्तर प्रदेश में नवम्वर 952 में बनारस जिले मे चन्द्रप्रभा नदी के ऊपर बाँध बनाने के लिए प्रारम्भ किया गयाथा | इसका नाम 'सम्पूर्णावन्‍्द शिविर रखा गया था। यह शिविर अब नैनीताल जिले में स्थित है। इस प्रकार की जेल अब उत्तर प्रदेश के अलावा राजस्थान, विहार, आन्भ्र प्रदेश और महाराष्ट्र मे भी पाये जाते हैं) राजस्थान में इस प्रकार के इस समय तीन जेल है | पहला जयपुर जिले के दुर्गापुरा में सितम्बर, 955 में प्रारम्भ किया गया था, दूसरा सागानेर में सितम्बर, 962 में और तीसरा अनूपगढ मे फरवरी 964 में खोला गया था। सागानेर मे इस समय लगभग पन्द्रह, दुर्गापुरा में दस, ओर अनूपगढ़ में 50 अपराधी रह रहे है ।* अनुपगढ़ मे रहने वाले अपराधियों से राजस्थान नहर की खुदाई का कार्य लिया जाता है। सांगानेर मे रहने वालो को हस्तकला, कुटीर उद्योग, बागवानी और कृषि की शिक्षा दी जाती है। राजस्थान में इस समय कुल दो केन्द्रीय जेल (जयपुर जोधपुर मे), पाँच जिला जेल (वीकानेर, कोटा, उदयपुर, अलवर तथा श्रीगंगानगर में), एक भादर्श वन्‍्दी-ग्ह (अजमेर मे), वाल' अपराधियों के लिए रिफामेद्री (उदयपुर मे), स्त्रियों के लिए रिफामेट्री (जयपुर मे) और 74 उप-जेल है। 962 में राजस्थान के जेलों में सुधार के लिए एक राजस्थान जेल रिफार्म कमीशन भी नियुक्त किया गया था जिसने 964 में अपने सुझाव दिये थे अब्हुबर, 95] में भारत सरकार के आमल्त्रण पर सयुक्त राष्ट्र संघ ने डा० वाल्टर रेक्लेस को यहाँ के अपराधियों के अध्ययन के लिए भेजा था जिसने जैलों में कुछ सुधार सम्बन्धी सुझाव दिये थे | इनमे से मुख्य थे--बाल अपराधियों को अलग रखना, परिवीक्षा सेवाओ का विकास, उत्तर रक्षा सेवाओ का विस्तार, क्रेपि फार्म की व्यवस्था, जेल नियमावली (77200॥]) मे सुधार इत्यादि परिबीक्षा या प्रोबेशन सेवाऐं--परिवीक्षा (छाण्/ककांणा इध्ाशं००0) बह व्यवस्था है जिसमें अपराधी को दण्ड देना स्थगित करके उसे कुछ घर्तो पर मुक्त कर दिया जाता है। मुक्ति के बाद उसे- अपने ही परिवार में रहते की अनुमति देने का उद्देश्य यह है कि उसे जेल जाने के सामाजिक कलंक ($००४| ४धंष्टा78) से वचाया जा सके जिसका उसके सुधार पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पडे | साथ में अपने ही परिवार में रहने से वह केवल समाज के सम्पर्क से रहकर अपना सुधार करेगा अपितु परिवार के प्रति जो उसके घनोपाजन आदि कर्तव्य है उतका भी पालन करता रहेगा मुक्ति के बाद अपराधी को परीवीक्षा अधिकारी के निरीक्षण मे रखा जाता है, जिससे वह (अपराधी) उसकी सहायता और सुझावों से अपने विचार और धारणाएँ बदलकर अपनी अपराधी भनोवृत्तियों को दुर कर सके इस उल्लेख के आधार पर परिवीक्षा की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है: वह व्यवस्था जिसमें अपराधी को दण्ड देना स्थग्रित करके उसे कुछ शर्तों पर मुक्त करके उसका

# पु॥९३८ 8७765 एटा४9 00 #9वं! 8973.

अपराध और अपराधी 65

निरीक्षण किया जाए ।'

बास्स और टीटर्स के अनुसार परिवीक्षा वह व्यवस्था है जिससे अपराधियों को जैल के अप्राकृतिक और अस्वस्थ वातावरण में भेजने के बजाय समाज में रखकर उनका निरीक्षण द्वारा सुधार किया जाता है”?

परिवीक्षा में दण्ड को केवल स्थगित ही किया जाता है ताकि यदि अपराधी निश्चित शर्तों पर उल्लंघन करे तो उसे वापस न्यायालय में बुलाकर दण्डित किया जाए इस तरह परिवीक्षा के चार मुस्य लक्षण है--() दण्ड को स्थेग्रित करना; (2) समुदाय में रहने को अनुमति; (3) कुछ शर्त निर्धारित करना; तथा (4) निरीक्षण की व्यवस्था

अधिकाश अपराधों में अपराधी को परिवीक्षा पर छोड़ने से पहले उसके अपराध की परिवीक्षक अधिकारी द्वारा सामाजिक छानबीन (३8०्लंशे प्रप्ट्शी- धशा०४) कराई जाती है। यह सामाजिक छानवीन पुलिस की छानवीन से इस प्रकार भिन्न है कि इसमे अपराधी के व्यक्तित्व, पर्यावरण और उसके पिछले रिकार्ड का अध्ययन करके अपराध करने के सही कारण को मालूम करने का प्रयत्न किया जांता है जो कि पुलिस कीं छानवीन मे सही मिलता | परिवीक्षक अधिकारी की यही छानबीन की रिपोर्ट कोर्ट के लिए अपराधी को परिवीक्षा पर छोडने या छोड़ने का आधार बनती है।

- सर्वप्रथम यह व्यवस्था अमरीका में 84 में गैर-सरकारी तौर पर जॉन आगुस्टम द्वारा शुरू की गयी थी उसने 7 साल में (858 तक) लगभग 900 श्रपराधियों को (00 पुरुष तथा 800 स्थ्रियो) कोर्ट द्वारा परिवीक्षा पर छुडवाकर

. उनको सुधारने का प्रयत्त किया था | सरकारी तौर पर यह व्यवस्था वहाँ 878 में ही प्रारम्भ की गयी थी परन्तु विस्तृत रूप मे 7925 के बाद ही इसका अधिक प्रयोग किया गया है। इंग्लेण्ड में यह व्यवस्था 887 में शुरू हुई थी

भारत में अपराधियीं को परिवीक्षा पर छोडने की व्यवस्था 888 (८.४,८.)

में की गयी थी पर उसमें तो निरीक्षण आवश्यक था और सामाजिक छानवीन | फिर, उसके आधार पर केवल प्रथम अपराधियों को ही परिवीक्षा पर छोड़ने की व्यवस्था थी। ]93] में भारत सरकार ने अपराधियों के लिए एक परिवीक्षण बिल बना करके विभिन्न राज्यों को उनके विचार मालुम करने हेतु भेजा परन्तु प्रोत्साहित उत्तर के अभाव में उसे पास नहीं किया गया 934 मे केवल राज्यों को यह कहा गया कि यदि वे चाहे तो अपने राज्य के लिए परिवीक्षा एक्ट पास कर सकते हैं। इस पर 936 मे मद्रार्स और मध्य प्रदेश ने, 938 में वम्वई और उत्तर प्रदेश ने, 2953 भें हैदराबाद ने, और 954 में वगाल से परिवीक्षा एक्ट पास किए परन्तु

इन अधिनियमों का क्षेत्र बहुत सीमित था विस्तृत रूप मे 7958 भे भारत सरकार ने केन्द्रीय परिवीक्षा एक्ट पास किया था जिसके आधार पर विभिन्न राज्यों ने अपने-

77 फ्वा॥६5 ॥ग0 प्‌६८(८८६, ०7. लं।., 553.

66 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

अपने राज्यो के लिए परिवीक्षा एक्ट पास किये 959 में विहार ने, 960 में केरल, मध्य प्रदेश, मंसूर और बंगाल ने, और 962 भे असम, मद्रास, उड़ीसा, पंजाब और राजस्थान ने (958 के एक्ट के आधार पर) अपने-अपने राज्यो में परिवीक्षा एक्ट पास किये।

उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु के अपने अलग कानून हैं। 958 एक्ट के मुख्य तत्त्व इस प्रकार हैं : () उने अपराधियों को परिवीक्षा पर मुक्त करना जिनके अपराध के लिए दो वर्ष से कम का दण्ड निश्चित हो। (2) निरीक्षण का आवश्यक होता (3) अधिक से अधिक 3 बर्ष तक परिवीक्षा पर छोड़ना (4) आवश्यक केस (८७४८) में सामाजिक छानबीन करवाना (5) इसमें निश्चित अवधि से पहले छोड़ने, परिवीक्षा समाप्त करने, और अवधि को कम करने की भी व्यवस्था की गयी है।

969 भे सारे भारत में निरीक्षण वाले परिवीक्षकों की संख्या 3782 थी जिसमें से 9246 परिवीक्षक 958 केन्द्रीय एक्ट अथवा राज्य एक्ट के अन्तर्गत छोड़े गए थे और शेप वाल अधिनियमों के अन्तगरंत 9246 «में से 259 केस (अथवा 2-3 प्रतिश्नत) में परिवीक्षा की अवधि समय से पहले ही समाप्त की ययी थी।

परिवीक्षा के शासत-सम्वन्धी प्रवन्ध के लिए अलग-अल्नग राज्यो में परिवीक्षा सेचाएँ अलग-अलग विभागों से सम्बन्धित की गयी हैं | राजस्थान, असम, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कश्मीर, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश में परिवीक्षा सेवाएँ समाज कल्याण विभाग से, बंगाल, केरल, तमिलनाडु, बिहार और आंध्र प्रदेश में जेल विभाग के साथ और मध्य प्रदेश में कानून विभाग से सम्बन्धित है। केवल मैसूर में ही इसका अलग विभाग है। यद्यपि परिवीक्षा का क्षेत्र बहुत बड़ा है परन्तु भारत में १रिवीक्षा पर छोड़े जाने योग्य कुल अपराधियों में से केवल 8 प्रतिशत को ही परिवीक्षा पर छोडा जाता है जबकि अमरीका में 60 प्रतिशत, इंग्ल॑ण्ड में 49 प्रतिशत, और स्वीडन में 65 प्रतिशत को छोड़ा जाता है। भारत मे नौ राज्यों (आध्न प्रदेश, विहार, गुजरात, केरल, तमिलनाडु, मंसूर, महाराष्ट्र, पंजाब और बंगाल) के उपलब्ध आँकडों से यह ज्ञात होता है कि औसतन एक अपराधी का परिवीक्षा काल एक वर्ष है। 70-4 प्रतिशत को एक वर्ष, 24 6 प्रतिशत को दो वर्ष तथा 5 प्रतिशत को तीन बंप का परिवीक्षण था

राजस्थान में 962 भे सबसे पहले 9 परिवीक्षक अधिकारियों की नियुक्ति

की गयी थी जो 967 भे बढकर 26 तक पहुँच गयी, अर्थाद्‌ हर जिले के लिए अलग-अतग परिवीक्षक अधिकारी था। परन्तु 967 से परिवीक्षक अधिकारी और समाज कल्याण अधिकारी के पदो को मिला दिया गया है इस राज्य के 972-7 के आँकड़ों के अनुसार 962 से मार्च 4973 तक सारे राज्य में 29]8 अपराधियों को परिवीक्षा पर छोड़ा गया या अप्रैल 973 में 26 परिवीक्षक अधिकारी 3# परिवीक्षको का निरीक्षण कर रहे थे; दूसरे शब्दों में प्रति परिवीक्षक अधिकारी 6 परिवीक्षकों का निरीक्षण कर रहा था। छानबीन वाले अपराधों की राख्या को लेकर

अपराध और अपराधी 67

हम कह सकते हैं कि एक परिवीक्षक अधिकारी एक महीने में औसतन दो-तीन अपराधियों की छानबीन कर रहा था। नई व्यवस्था के कारण अब यह निरीक्षण और छाम्बीन की सख्या बहुत कम हो गयी है। क्योंकि परिवीक्षक सेवाएँ जेल व्यवस्था की तुलना मे अधिक सफल सिद्ध हुई हैं, अब यह आवश्यक है कि इन सेवाओं को और अधिक विकसित किया जाय। परिवीक्षक सेवाएँ तीन तरह से लाभदायक हैं--आधिक हृष्टिकोण से, सामाजिक दृष्टिकोण से, और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से इसका आ्थिक लाभ यह है कि जब प्रति कैदी के लिए हम प्रति माह 40 से 60 रुपये व्यय कर रहे हैं, प्रति परिवीक्षक के लिए केवल 20 से 30 रुपये ही खर्च होते है यदि हम यह्‌ माने कि राजस्थान मे प्रतिवर्ष लगभग 2000 दण्डित अपराधियों मे से केवल 70 प्रतिशत ही परिवीक्षा पर छोड़ने के योग्य हैँ तव प्रतिवर्ष अपराधियों को जेल में रसने की बजाय परिवीक्षा पर छोड़ने से औसतत बीस लाख रुपये की बचत होगी यदि सभी राज्यो में परिवीक्षा का प्रयोग विस्तार से किया जाये तो करोड़ो रुपये बचाये जा सकते हैं। सामाजिक रूप से परिवीक्षा इस प्रकार लाभदायक है कि अपराधी के समाज में हो रहने से उसके देनिक कार्यों में परिवर्तन आने के कारण उसे सुधार का अधिक मौका मिलता है। फिर, वह अपने परिवार के सदस्यों की भी देखभाल कर सकता है। परिवीक्षक को परिवीक्षा अधिकारी समय-समय पर अपने कार्यालय बुलाकर और कभी-कभी स्वयं उसके धर जाकर उसे कानून तथा समय और कार्य झीलता के प्रति आदर करने की शिक्षा देकर उसकी व्यक्तिगत देखभाल कर सकता है जो जेल प्रणाली में सम्भव नहीं है। मनोवैज्ञानिक रूप से परिवीक्षा इस तरह उपयोगी है कि अपराधी के जेल जाने से जो उसके जीवन पर सामाजिक धब्बा लग जांता है, जिससे समाज उससे नफरत करता है, उससे वह्‌ बच जाता है कुछ लोग परिवीक्षा की हानियाँ भी वतलाते है। उनका कहना है कि जो पर_ाविरण व्यक्ति को अपराधी बनाते है वही उसे कंसे सुधार सकते हैं॥ इसका उत्तर यहूँ दिया जा सकता है कि क्योंकि परिवीक्षक का निरीक्षण होता है और उसे कुछ शर्तों पर छीड़ा जाता है, उसके पर्यावरण नियन्त्रित होते हैं। दूसरा दोप यह बताया जाता है कि अपराधी को कोई दण्ड मिलने से उसे और अपराध करते की प्रेरणा मिज्ञती है, परन्तु इसबे? लिए हम पहले ही कह चुके है कि आजकल समाजशास्त्री सभी अपराधियो को दण्ड देना आवश्यक नही समभते उनका तो यह विचार है कि दण्ड सुधारने की अपेक्षा अपराधी को समाज का झत्रु बनाना है। फिर, अपराधी को परिवीक्षा पर छोडना उसके प्रति उदारता दिखाना भी नही कहा जा सकता क्‍योंकि उसे कम समय के लिए जेल मे रखकर गम्भीर अपराधी बनाने की तुलना मे परिवीक्षा - पर छोड़ना अधिक उचित है। इन्ही तकों के आधार पर अब परिवीक्षा प्रणाली को अपराधियों के सुधार के लिए अधिक विकसित रूप में प्रयोग करने का सुझाव दिया जाता है। अन्‍्त में हम कह सकते है कि आधुनिक काल में अपराधियों को सुधारने का

68 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन तरीका अधिक वैज्ञानिक है|

उत्तर संरक्षण सेवाएँ

अपराधियों के लिए उत्तर सरक्षण सेवाओं (की टद्ा० 8थाशेप्थ) का महत्त्व उतना ही माना जाता है जितना बीमार पागल व्यक्तियों के संरक्षण का। जिस प्रकार लम्बी अवधि के उपरान्त जब एक रोगी को अस्पताल से छोडा जाता है तब डाक्टर उसके चिकित्सा एव स्वास्थ्य सुधार के लिए केवल विभिन्न औषधियों के प्रयोग के लिए उसे निर्देश देता है परन्तु बहुत कार्य करने के लिए भी उस पर प्रतिबन्‍्ध लगाता है, अथवा जिस प्रकार एक पागल व्यक्ति को बहुत समय तक पागलखाने में रखने के पश्चात्‌ तुरन्त उसे मुक्त करके घने: शनै: समाज मे व्यक्तियों से सम्पर्क स्थापित करने दिया जाता है जिससे वह अपना अच्छी तरह समायोजन कर सके तथा पुरानी वातों को दुहरा कर फिर मानसिक सन्तुलन खो बैठे, उसी प्रकार जो अपराधी एक लम्बी अवधि तक जेल में रहता है उसे रिहा होने पर बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जेल मे रहने से उसके जीवनू पर जो कलंक (8०७५४ घांह779) लग जाता है उसके कारण लोग उससे “किनारा “करते हैं. तथा उसे सन्देह अविश्वास की दृष्टि से देखते है। केवल लम्बी अवधि वाला बन्दी परन्तु थोड़े समय तक जेल में रहने वाला वन्दी भी इस कारण कुछ समस्याओं का समता ऋश्ता है क्योकि वह अपने विरोधी तथा शत्रु के प्रति अपनी घुणा, हूं झन्रुता भूल नही पाता इस तरह हर प्रकार का अपराधी विभिन्न समस्याओं का सामना करता है। इन समस्याओं का यदि शीघ्र ही निवारण किया जाए तो निश्चय ही वह व्यक्ति पुन: अपराध करेगा। इस कारण समस्याओं का सामनो करने में सहायता करना ही उत्तर-सरक्षण सेवाओं का प्रमुख उद्देश्य होता है, अथवा हम काह सकते हैं कि उत्तर-संरक्षण कार्यक्रम एक ऐसा कार्मक्रम है, जिसके द्वारा हम बन्दी को क्रमशः जेल के वन्धनयुक्त वातावरण से स्वस्थ नागरिक जीवन की ओर ले जाते हैं ताकि वह समाज में पुनः स्थापित हो जाये मोटे तौर पर उत्तर-संरक्षण सेवाएँ वे सेवाएँ है जो मुक्त वन्दियों के पुनर्वास के लिए व्यवस्थित की जाती हैं। परन्तु यह परिभाषा बहुत संकीर्ण है क्योकि इसके अनुसार उत्तर-संरक्षण का कार्य जेल से छूटने के वाद ही आरम्भ होता है जबकि सही शर्थ के अनुसार यह कार्य अपराधी के जेल मे प्रवेश से ही शुरू हो जाना चाहिए। उदाहरगतवा, मान लीजिए कोई अपराधी जेस जाने से पहले कुछ रुपयों पर अपनी जमीन गिरवो रसता है। यदि समय पर यह जमीन छुड़वाई गई तो उसके परिवार के सदस्यों के लिए आविक हानि उलसप्न हो सकती है इस कर को चुकाने में सहायता करके परिवार के सदस्यो को आयिक सुरक्षा प्रदान करना उत्तर-संरक्षण सेवाओं के अन्तर्गत आना चाहिए। परन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं कि उत्तर-मरक्षण हर अपराधी के रा प्रदान के लिए है। मुस्यतः उत्तर-संरक्षण सेवाएँ दो प्रकार के जयपराधियों फे तिए हैं--() उनके लिए नो विसी सुधारात्मक संस्था में कुछ समय

अपराध और बपराधी 6

रह चुके हैं और वहाँ उनकी देशभाल हुई है तथा वे कोई शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं। (2) उनके लिए जिनको वास्तव में किसी सामाजिक, मानसिक अथवा शारीरिक असुविधा कमी के कारण सरक्षण की आवश्यकता है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि उत्तर-संरक्षण प्रोग्राम वाघाहित (!०४०१००४७८वे) व्यक्ति के उस पुनर्वाति के कार्यक्रम की परिसमाप्ति है जो किसी सुघारवादी सस्था मे आरम्भ किया गया है उर््देश्य--उत्तर-संरक्षण सेवाओ के मुख्यतः दो उद्देश्य है---(क) अपराधी की सहायता (स) परिवार और समुदाय का ऐसा निर्माण जिससे वे जेल सुधारवादी संस्था से छूटने के उपरान्त अपराधी के पुनर्वास मे सहायता कर सके। अपराधी को तीन प्रकार से सहायता दी जा सकती है : (3) उसके व्यक्तिगत समायोजन में; (2) उसके व्यवसाय सम्बन्धी पुनर्वास में; और (3) उसको समाज में फिर से बसाने में व्यक्तिगत समायोजन बी आवश्यकता उन अपराधियों को होती है जिनका कोई घर-बार नही होता है अथवा जिनका घर नप्ट-भ्रप्ट हो जाता है तथा जिनका पड़ोस छात्र होता है। फिर, व्यक्तिगत समायोजन की आवश्यकता इस कारण भी पडती है कि---() न्यायालय द्वारा दण्ड मिलने से पूर्व जो स्थान व्यक्ति प्राप्त किये हुए था वह अन्य किसी के द्वारा भर दिया गया हो। (2) लम्बी अवधि तक अनुपस्थिति के कारण उस व्यक्ति की अथवा उसकी सेवाओं की आवश्यकता ही समाप्त हो गई हो ! (3) समाज उसके पुनर्वास के लिए तेयार मे हो। (4) छूदने के पश्चात्‌ वह्‌ इस स्थिति में हो कि अपने लिए सुरक्षा प्रदान कर सके आधिक पुनर्वास में भी अपराधी को आजीविका के साधन छुटाने के लिए विभिन्न प्रकार की सहायता की जा सकती है उसे नौकरी दिलावायी जा सकती है, किसी रोजगार के लिए सिफारिश-पत्र दिया जा सकता है, तथा किसी पन्धे के लिए आवश्यक प्रशिक्षण दिया जा सकता है सामाजिक थुनर्वास में पुलिस की परेशानी से उसे बचाया जा सकता है, आवश्यकता पड़ने पर कानूनी सहायता दी जा सकती है तथा घरबवार होने पर उसे उत्तर-स रक्षण होल्‍्टल में रसा जा सफता है। प्रो० काली प्रसाद ने भी उत्तर-सरक्षण के उद्देश्यों पर बल देते हुए कहा है कि मुक्त बन्दी एक घाव (#80४79) अथवा व्यक्तित्व के एक मनोवेज्ञामिक क्षति रो अपना जीवन आरम्भ करता है। वह समाज द्वारा दुत्कारे जाने के प्रति सचेत रहता है। उत्तर-संरक्षण का कार्य है कि उसके इस घाव को ठीक करे, उसमें विश्वास साहस उत्पन्त करे और समाज कौ उसे वापस स्वीकार करते के लिए तैयार करे 7४ इरा तरह क्योकि जेल से घूठमे के बाद अपराधी आधिक, मनोवैशानिक और सामाजिक समस्याओं का सामना करता है अतः हम कह सकते हैं कि उत्तर-संरक्षण प्रोग्राम के मुरय कार्य अग्रलिसित है :

70 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

(क) बन्दी को सहायता करना जिससे वह स्वयं अपनी सहायता कर सके; तथा (ख) देख-रेख निरीक्षण द्वारा अपराधी अपने पुनर्वास सम्बन्धी कार्यक्रम की योजना बनाएं, इस योजना को कार्यान्वित करे तथा कार्यान्वित योजना का कुछ समय पश्चात्‌ मूल्यांकन करे उत्तर-संरक्षण सेवाह्रों को उत्पत्ति--भारत में उत्तर-संरक्षण कार्य की आवदयकता का सर्वप्रथम इण्डियन जेल कास्फ्रेन्स ने 877 में अध्ययन किया था और बह इस निष्कर्ष पर पहुँची कि भारत मे मुक्त बन्दी सहायता समितियों की आवश्यकता नहीं है क्योकि जेलों से छूटने के उपरान्त यहाँ अपराधियों को समाज में खोई हुई स्थिति प्राप्त करने में कोई कठिनाई नही होती। परन्तु इस विचार के उपरान्त भी 894 में उत्तर प्रदेश मे उस समय के जेलों के इन्सपेक्टर जनरल के व्यक्तिगत प्रयत्नों से एक गैर-सरकारी मुक्त बन्दी सहायता समिति स्थापित की गयी। इसके वाद 907 में बंगाल में और 94 से वम्बई में भी ऐसी समितिियाँ प्रारम्म की गयी। परल्तु सरकारी समर्थन और सार्थेजनिक सहानुभूति के अभाव मे इन तीनों समितियों का कार्य सुचारु रूप से नही चल पाया जिस कारण 902 में उत्तर प्रदेश की बन्‍्दी सहायता समिति ने और बाद में अन्य दो समितियों ने भी कार्य करता वन्द कर दिया इसके उपरान्त 99 भें इण्डियन जेल कमेटी ने इन समितियों की स्थापना पर बल दिया। इस कमेटी की यह मान्यता थी कि अपराधी के जीवन मे सबसे कठिन वे विकराल घी वह नहीं होती जब उमे जेल में वन्द किया जाता है परन्तु उसकी बास्तविक चिकट समस्या तो तव आरम्भ होती है जब बहू बहुत वर्षों तक जेल में रहने के याद वहाँ के फाटक के बाहर निकलता है उसके सामने वह संसार होता है जिसमें उसे चरित्रहीन मर्यादा-भ्रप्ट सममा जाता है तथा जीवन के साधारण व्यय के लिए भी उसके पास कोई पैसा नहीं होता | इस कमेटी का यह भी विचार था कि घूटने के बाद 20 प्रतिभत अपराधी पुनः अपराध करते हैं जिमका एक मुख्य कारण उनकी शिसी प्रकार की सहायता ने मिलता होता है इस कमेटी के सुकाव के बाद मुछ राज्य सरकारों ने अपने-अपने राज्यों में मुक्त वन्‍्दी सहायता समितियाँ स्थापित की | सबसे पहली समिति मद्रास में ।92] में ध्रारम्म की गयी और उसके उपदान्त ]925 में मध्य प्रदेश में, ।927 में पंजाब में तथा 928 में उत्तर प्रदेश में यह सब समितियाँ गैरल्‍सरकारी आधार पर ही कार्य कर रही थी यद्याति इनमें से गुछ को राज्य मरफार द्वारा आविफ सहायता मित्ती थी। शामायान में उत्तर-संरक्षण रोषाएं--राजम्थान में कोई सुक्त झन्दी सहायता समिति नहों है। समाज कस्याथ विभाग की और से ]97] तक छदयपुर में एक उत्तर रक्षा एह घवाया जाता था परन्तु आविफ पटौती के कारण इसे अब समाप्त जिया धपा है। अ्थव 96] में शाजस्वान के चैयो के इस्सपस्टर जनराा में अपरापियों को पाविर सहादता पहुँचाने हेसु एक बरदी वस्यात कोच स्थापित बरतने वी सरकार 3 शोजना प्रस्दुड़ की थो | इस योदना के अनुसार एए मैस्द्रत जैस हे काराधीदर

आजा

72 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

(2) नौकरियाँ दिलवाना; (3) मुक्त बन्दियो की नियुक्ति पर लगे प्रतिवनन्‍्धो को दुर करवाने का प्रयत्त करना; (4) छोटे कर्जे देना; (5) उत्पादक सहकारी संस्थाएँ स्थापित करना; और (6) छोटे पैमाने के उद्योग शुरू करना

सामाजिक पुनर्वास से सम्बन्धित सुझाव इस प्रकार थे”--() उत्तर-संरक्षण होस्टल खोलना; (2) प्रदर्शन, परामशं रक्षा की सुविधाएँ पर्याप्त करना; और (3) कानूनी सहायता जुटाने का प्रबन्ध करना - व्यवस्था सम्बन्धी ढाँचे (ण8कगांइबरधंणाओं इधप्रप्रा०) के प्रति यह कहा गया कि केन्द्रीय स्तर पर एक केन्द्रीय परामर्श कमेटी स्थापित की जाये जो देझ्ष में उत्तर-सरक्षण सेवाओं की योजना बनाये उनकी व्यवस्था करे तथा विभिन्न राज्यों मे संरक्षण सेवाओ मे समन्वय स्थापित करे। राज्य स्तर पर भी राज्य परामझ् कमेटी होती चाहिए जिसका कार्य राज्य मे संरक्षण सेवाओं की व्यवस्था करना, केन्द्रीय कमेटी की योजनाओं को अभिषपूर्ण करना राज्य के विभिन्न जिलो मे पाये जाने वाले संरक्षण समितियों मे समनन्‍्दय स्थापित करना होगा सबसे नीचे स्तर पर प्रोजेक्ट कमेटी होगी जो स्थानीय स्तर पर सरक्षण सेवाओं की व्यवस्था करेगी

इसके अतिरिक्त गोरे कमेटी ने दो प्रकार की इकाइयो की स्थापना का भी सुझाव दिया, एक “ए' श्रेणी की इकाई और दूसरी 'वी' श्रेणी को इकाई। 'ए' श्रेणी के कार्य निम्न बताये गये--

() मुक्ति से पहले उपरान्त उत्तर-संरक्षण सेवाओं का प्रवन्ध | (2) मुक्त बन्दियों के लिए थोड़े समय के लिए आश्रय का उपाय करता (3) हर इकाई को 5000 रुपए प्रतिवर्ष व्यय करने का अधिकार देना

'बी' श्रेणी इकाई के भी यही कार्ये बताये गये केवल इनको “ए' श्रेणी इकाई की सुलना में स्थायी आधार पर मुक्त वन्दियों के आश्रय का प्रवन्ध करने के लिए होस्टल खोलनी थी हर होस्टल में 300 व्यक्तियों तक रखने की सुविधाएँ प्रदान करने का सुझाव था आरम्भ में तो इन इकाइयों की संख्या सीमित बताई गई थी परन्तु अन्त में हर जिले मे एक 'ए' श्रेणी की इकाई और एक “बी' श्रेणी की इकाई का सुझाव था वित्त व्यवस्था के प्रति गोरे कमेटी ने यह सुभाव दिया कि रुपया केन्द्र और राज्य स्तरों पर गृह-मन्त्रालय, शिक्षा-मन्त्रालय तथा वाणिज्य- भन्त्रालय देंगे इसके अतिरिक्त केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड भी रुपया देगा। भोरे कमेटी के इन सुझावों के आघार पर वहुत कम राज्यो ते संरक्षण की योजनाएँ बनाई हैं। यद्यपि उत्तर-संरक्षण सेवाओं की आवश्यकता पर सभी बल देते हैं परन्तु फिर भी इस सम्बन्ध में कोई अधिक कार्य नहीं किया गया हैं।

*। /202., 244-49,

/0॥ बाल-अपराध (एशफाशा।: एडायाएएएणपट४)

हर

वाल-अपराध का श्र्थ

बाल-अपराध का अर्थ दो आधार पर बताया णा सकता है--एक आयु, दूसरा व्यवहार की प्रकृति आयु की दृष्टि से मुख्यतः सात और सोलह वर्ष के बीच के अपराध करने वाले व्यक्ति को वाल-अपराधी माना जा सकता है। सात वर्ष से कम वाले बच्चों को उनके किसी कार्ये के लिए उत्तरदायी नहीं माना जाता यदि वें अपराध भी करते है तो भी उन्हें कम बुद्धि के कारण सही और अनुचित कार्य मे भेद ने समभने और कार्य के परिणाम को सोचने की वजह से दण्ड नही दिया जाता। निम्नतम' आयु सीमा यद्यपि भारत के विभिन्न राज्यो में निश्चित है परन्ठु यह अलग- असग राज्यों में तथा भिन्न-भिन्न देशों में अलग-भलग पायी जाती है। अधिकतम आपयु-सीमा भी इसी प्रकार निश्चित नहीं है अमरीका के अधिकतर राज्यो में यह्‌ अद्ठारह वर्ष है, इंग्लैण्ड में सत्तरह वर्ष तथा जापान में वीस वर्ष है। भारत में भी यद्यपि राजस्थान, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, बंगाल, मध्य प्रदेश, कर्माटक आदि शाज्यों मे सोलह वर्ष है परन्तु पजाव भौर महाराष्ट्र जेसे कुछ राज्यो मे यह अटूठारह ब्ं है। राज्य भे पाये जाने वाले वात-अधिनियम ही इस उच्चतम आयु सीमा को निर्धारित करते हैँ। आयु में इस प्रकार के अन्तर के कारण “बाल-अपराधी” को वह अपराधी व्यक्ति वताया जा सकता है जो देश अथवा राज्य की वैधानिक व्यवस्था द्वारा निर्धारित आयु से कम हो

व्यवहार की दृष्टि से सिरिल वर्ट मिलुक आदि के अनुसार वाल-अपराधी कैवल उनको माना जाता है जो कानून की अवहेलना करता है परल्तु उसे भी जिसका आचरण समाज अस्वीकार करता है क्योकि उसका यह दुष्येवहार उसे अपराध करने के लिए उत्तेजित कर सकता है अथवा उसके अपराधी बनने के खतरे को उत्पन्न करता है उदाहरण के लिए ऐसे बच्चों को भी याल-अपराधी मात्रा जाता है जो घर से भागकर आवारागर्दी करते हैं स्वूल से बिना किसी उचित कारण के अनुपस्थित रहते है, माता-पिता अथवा संरक्षको की आज्ञा का पालन नहीं

(५ झछाई, २#6 अत्कछ 0सब्ब्टाा, ए0एटआए [.0000, पए.एत007, 955 हित रवाधरए४), 45, 5_०6१05 गाव 50९९८, एक सातड सैक्षारत/ 220/4४2०८)' सी एछ05., )१६७४ ४००४, 950, 3.

4 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवतेन

करते, चरित्रहीन निन्‍्दनीय व्यक्तियों के सम्पर्क में पाये जाते हैं, अश्लील भाषा का प्रयोग करते हैं, जो अनेतिक तथा अस्वस्थ क्षेत्रो में घूमते मिलते है इसी व्यवहार के आधार पर वाल्टर रेक्लेस ने वाल-अपराध को इस प्रकार परिभाषित किया है-- “वाल-अपराध शब्द अपराधी विधि के उल्लंघन पर तथा उस व्यवहार पर लागू होता है जिसे बच्चो युवको में समाज द्वारा अच्छा नही समझा जाता ।” हैपन, स्युमेयर, माऊरेर आदि ने भी बाल-अपराध की धारणा में बच्चों के इसी व्यक्तित्व निर्माण- सम्बन्धी व्यवहार पर बल दिया है ।* परन्तु 960 में अपराध के नियस्त्रण-सम्बन्धी द्वितीय संयुक्त राष्ट्र काग्रेस ते यह विचार प्रकट किया कि वाल-अपराघ शब्द केवल कानून के उल्लंघन एवं दण्ड विधान की अबज्ञा तक सीमित चरना चाहिए। इसमें ऐसे व्यवहार को सन्निहित नहीं करना चाहिए जो यदि एक वयस्क व्यक्ति करे तो उसे अपराध नही माना जाये ॥। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि 'दुब्यंवहारी वालक' और “बाल-अपराधी' में अन्तर स्पष्ट करना आवश्यक है। यद्यपि कानून की हृष्टि से बाल-अपराध को “राज्य के कानून द्वारा निर्धारित आयु से कम वाले बालक द्वारा कानून का उल्लंघन” बताया गया है परन्तु इसके सही और वेज्ञानिक परिभाषा में बालक की आयु के अतिरिक्त उसके व्यवहार की गम्भीरता उसके कार्य की पुनरावृत्ति को भी आधार बनाना चाहिए है

चाल-प्रपराध की दर और प्रकृति

समाज मे जितने भी वच्चों द्वारा अपराध होते हैं. वे सव पुलिस और न्यायालयों तक नही पहुँच पाते यह माना जाता है कि किये गये कुल बाल-अपराधो में से दो प्रतिशन से भी कम अपराध ही पुलिस के सामने आते है। इस कारण भारत मे वाल-अपराध की सही मात्रा को मालुम करना सम्भव नही है। परन्तु जो आँकड़े सेन्ट्रल ब्यूरो आफ करेक्शनल सविसिज (एथ्आा० फग्मल्या एग्राव्दांणाबा $07५०७७५) द्वारा समय-समय पर भ्रस्तुत किये जाते है उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रतिवर्ष भारत में 65 और 75 हजार के बीच वाल-अपराधियो को पकडा जाता है जिनमें से लगभग 60 हजार को न्यायालयों मे भेजा जाता है। 965 के आँकड़ो के अनुसार न्यायालयों मे भेजे गये 60436 बाल-अपराधियों में से 50-7 प्रतिज्ञत को निर्दोष मातकर बरी कर दिया गया, 3-3 प्रतिशत को उनके

3 "ुफलालाओ पश्टयॉल बशा।क47८7८७ 2965 00 धार शणेआंत्त ढंग 2006 ब00|0 एप्ाज्पा: वर ढलावव एगाहाग$ एडॉड्शठ्पा त$89970१९9 णी 7 ढंतालत बग6 अ0फाए 840८5०९७३." २८९४९५५, 'एबस्‍ल, मत्गव 87० #छट/ट्वां 322९३ /ल बार प्रतश्वाक्राल्य थी /#कधेर क्र मा_श्तार 08छाब॑दरऊ, 009 49493, 956, 3,

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# ]#979, एल, ३२०४. 4965, 2.

बाल-अपराध बे

संरक्षकों को सौंपा गया, 3-3 प्रतिशत को परिवीक्षा पर रखा गया, 48 प्रतिशत को बारस्टल आदि सुधारवादी सस्थाओ मे भेजा गया, 5-2 प्रतिशत को कारावास दिया गया और शेष 2-7 प्रतिशत केस न्यायालयों में विचाराधीन थे ।£ इससे सिद्ध होगा है कि न्यायालयों द्वारा जो वाल-अपराधियों के लिए दण्ड की विधियाँ अपनायी जत्ती हैं उनमें दण्ड पर कम और सुधार पर अधिक वल दिया जाता है। बोध किये जाने वाले अपराधों (००६४290!० ०गींटा०६७) में स॒से अधिक वाल-अपराध भारत में तमिलनाडु और महाराष्ट्र मे मिलते हैं (लगभग चार और पाँच हजार के बीच) और सबसे वाम जम्मू-कश्मीर और केरल में मिलते हैं ([00 और 200 के बीच) ।९

अपराध की प्रकृति के दृष्टिकोण से यह कहा जा सकता है कि अधिकाधिक अपराध चोरी के मिलते हैं (योग का लगभग 3/5 हिस्सा) और उसके बाद भगडे- फसाद, हत्याएँ, राहुजनी, धोखाधड़ी आदि के ।7 968 के आँकड़ों के अनुसार भारत के विभिन्न राज्यो की अदालतों में कुल औसतन 68000 वाल-अपराधियों (63000 लड़के और 5000 लड़कियों) को भेजा गया। इनमे से 48 प्रतिशत बाज्ञकों ने हत्याएँ, मारपीट जैसे व्यक्तियो के विरुद्ध अपराध किये थे, 20-3 प्रतिशत ने चोरी, राहुजनी, सूटमार आदि जैसे सम्पत्ति के विरुद्ध अपराध किये थे तथा 89 प्रतिशत अपराध वाल-अधिनियम के विरुद्ध थे, 0-] प्रतिशत रेलवे अधिनियम के विरुद्ध और 4:3 प्रतिशत मद्यनिपेंध अधिनियम के विरुद्ध थे | शेप अपराधों में 4"7 प्रतिशत जुए के अपराध के लिए और 39-9 प्रतिशत अन्य अपराधों के लिए गिरफ्तार किये गये थे ।९ इन आँकड़ो मे यह नहीं कहा जा सकता कि वाल-अपराध का मुख्य कारण निर्धनता है। अधिक से अधिक निर्धवेता को परिवार के विधष्छिन्न सम्बन्धो से सम्बन्धित किया जा सकता है जिनका बच्चे के व्यवहार व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ता है

बाल-अ्रपराघ के लक्षण

भारत में बाल-अपराध के मुख्य लक्षण निम्न है--+

() लड़कियों में लड़को की अपेक्षा अपराध कम मिलता है सम्भवतः इसका कारण राडकियो पर विभिन्न प्रकार के प्रतिवन्ध हैं इसके अतिरिक्त लड़कियों के कार्यो का घर में सीमित होना तथा लडको मे अधिक शारीरिक शक्ति का होना (जो उनके अपराधों मे कुछ सहायक सिद्ध होती है) भी इस अन्तर के कारण बताये जा सकते है।

(2) बाल-अपराध किश्लोरावस्था में अधिक मिलता है। यदि हम बाल अपराधियों को आयु के आधार पर विभाजित करके उनको 7-!2, 2-4, 4-

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76 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

6 और 6-8 आयुनसमूहो में रखें तो हमें ।4-6 वाले आयु-सम्रृह में अधिक अपराध भिलेगा। 956 में वम्वई, पूता और अहमदावाद में हन्सा सेठ द्वारा अध्ययन किये गये वाल-अपराधियो में में 40 5 प्रतिदत अपराधी ]4-6 आयु- समूह के पाये गये जबकि 7-0 और ]-3 आयु-समुहों में केवल 6"5 प्रतिशत और 358 प्रतिशत ही मिले ।" लखनऊ और कानपुर मे [959) वर्मा द्वारा अध्ययन किये गये 200 बाल-अपराधियों में से 38:7:प्रतिशत बाल-अपराधियों को 4-6 आयु-ममूह में पाया गया 7९ गोयल द्वारा उत्तर प्रदेश के पाँच कावल (8/ए४7,) बगरो में 500 बाल-अपराधियों मे से वहुत अधिक किशोरावस्था के पाये गये ।/ रटनशा (र०७४०॥७॥०४) के वम्बई के अध्ययन में भी यही लक्षण पाया गया ।* सम्भवतया इसका कारण इस, आयु के बच्चों पर कम नियन्त्रण का होना है। किर इस आयु के वच्चो को कुछ स्वतन्त्रता भी अधिक ही मिलती है

(ी अपराध की प्रकृति का अपराधी की आयु से गहरा सम्बन्ध है। कुछ अपराधों मे शारीरिक शक्ति की अधिक आवश्यकता होती है जिस कारण ऐसे अपराध अधिक आयु वाले चच्चो भे ज्यादा ही मिलते है

(4) ग्रामीण क्षेत्रों में वाल-अपराध की समस्या इतनी भीषण नहीं जितनी नगरीय क्षेत्रों में है फिर, थड़े शहरों (जैसे मद्रास, दिल्‍ली, वम्बई, अहमदाबाद, हैदराबाद, बैंगलोर, कलकत्ता, कानपुर आदि) मे वाल-अपराध की सीमा छोटे शहरो की अपेक्षा कही अधिक है कि

(5) बाल-अपराध मुख्यतः निम्न आर्थिक और सामाजिक वर्गों में अधिक मिलता है। हन्सा सेठ के अध्ययन में 667 प्रतिशत अपराधी निर्धन परिवारों के सदरय पाये गये ।४ वर्मा के अध्ययन में 8:6 प्रतिशत बाल-अपराधियों की पारिवारिक आय 00 स्पए माह से कम थी ।॥$ इसी प्रकार 4'6 प्रतिशत अपराधों में बच्चों के पिता अशिक्षित पाये गये रटनशा के अध्ययन से भी यही निष्कर्ष मिलता है अन्यथा यह कहा जा सकता है कि पारिवारिक वातावरण वाल-अपराध मे मुख्य कारक है|

बाल-अपराध के कारणों के सिद्धान्त अपराध के कारणों की सदरल॑ण्ड, मर्टेन, क्लोवार्डडओहलित, थामस, वॉगर,

3 पुक्ला$3 डट0,.. स्‍द्शॉट:. ऐलनबकलाट्ए गि.।. कक इाबोच्य <5लाए2। 00फ्पोगर ए।डबच्चो॥0, 80004५, 496, 33.

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याल-अपराध 47

क्लिफो्ड था आदि विद्वानों द्वाया दी गयी संद्धान्तिक व्यास्या पहले ही दी जा चुकी है ये स्रभी सिद्धान्त वाल-अपराध के कारण भी बताते है यहाँ हम केवल कोहेन द्वारा दिये गये सामाजिक सिद्धान्त का विश्लेषण करेंगे फोहेन का सिद्धान्त (एमाला'$ धाध्णा॥ ण॑ स्श०० 0ांध्यांशाणा)--- आलवर्ट कोहेन के अनुसार बच्चों और वयस्कों की अपने प्रति मन मे घारणा बनाना इस वात पर आधारित है कि अन्य लोग उनका किस प्रकार मुल्याकन करते हैं) विभिन्न परिस्थितियों में, जिनमें उतका मूल्यांकन किया जाता है'और जिनमे से स्वू एक प्रमुख परिस्थिति है, मध्य वर्ग के लोग छाये रहते हैं। इस कारण व्यक्ति के व्यवहार का मूल्यांकन भी मध्य वर्ग के स्तर मूल्यों अथवा आदर्शों के आधार पर किया जाता है परस्तु इस श्रमाण को एकमात्र मध्य वर्ग का स्तर मूल्य अथवा आदर नहीं माना जा सकता क्योंकि वास्तव में ये समाज के ही व्याप्त, प्रधान प्रवल्न आदर्श है। इस व्याप्त स्तर में सफाई स्वच्छता, शुद्धता, व्यवहार-सम्बन्धी विनम्रता, विद्वत्परिपद्‌ सम्बन्धी ज्ञान, धारा-प्रवाह से बोलने की शक्ति, ऊँची अभिलापाएँ, वैयक्तिक उत्तरदायित्व आदि आते है फिर समाज में सभी वर्मों के लोगों का इसी प्रवल स्तर के आधार पर मुत्यांकन किया जाता है, जिस कारण विभिन्न वर्गों के सदस्यों को स्थिति-प्राप्ति के लिए एक-दूसरे का मुकाबला करना ' पड़ता है। परन्तु सभी वर्गों के लोग इस स्थिति-प्राष्ति के लिए अपने को अन्य लोगों के बरावर योग्य नही पाते क्योंकि अलग-अलग वर्गी में समाजीकरण की प्रक्रिया अतग- अलग पायी जाती है इसी समाजीकरण की प्रक्रिया की भिन्नता के कारण निम्न वर्य के लोग अपने को मध्य वर्ग का अपेक्षा कम योग्य पाते हैं। जब निम्न वर्ग के लोग अपने में ऊपर की ओर गतिशील होने की प्रवृत्ति के कारण मध्य वर्ग के लोगो के सांस्कृतिक अ|दि विशेषताओं को ग्रहण कर उनके वराबर की स्थिति प्राप्त नही कर पाते तो उनमे पराजय नैराश्य की भावना उत्पन्न हो जाती है। इस नेराश्य को रोकने का यद्यपि एक तरीका है अपने को इस स्थिति-सूचक समूह से अलग करना तथा स्थिति-प्राप्ति के लिए स्वय के नियम और सिद्धान्त बनाना परन्तु निम्न वर्य के लोग मध्य वर्ग के मूल्यों का इतमा आन्तरीकरण कर लेते है कि मध्यम वर्ग की विज्लेपताओं को ग्रहण करने की प्रतियोग्रिता में पीछे रहना नहीं चाहते और जब अच्छी स्थिति प्राप्त नही कर पाते तो अपनी समरूपता स्थापित करने के लिए व्याप्त भुल्यों को अस्वीकार कर ऐसे मूल्यों और व्यवहार को अपनाते है जिन्हें समाज बुरा मानता है। उदोहरणार्थ, पुलिस वाले अधिकतर बिकृत चित्त वाले (०००६८४०) होते हैं, रुपया केवल खर्च करने के लिए होता है, कानून हमेशा साधारण लोगों के विरुद्ध होता है, नम्रता शिप्टाचार केवल कन्याओ के लिए होता है, व्यक्ति को कठोर परिश्रम तभी करना चाहिए जब इससे उसे लाभ हो, इत्यादि इन्ही मूल्यों के कारण ही वे अपराध भी करते है अपराधी मुल्यों एवं व्यवहार को अपनाने का प्रमुख कारण यह होता है कि वे अपने अन्य लोगों के लिए व्याप्त मूल्यों के भ्रति अपनी घृणा का प्रदर्शन कर सकें। इस नये मूल्यों को कोहेन ने वाल-अपराधी उप-संस्कृति

ट्रि

78 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

(96ए)०घ८७६ 5ध७०-०प्रा 6) माना है ॥5

इस प्रकार कोहेव के अनुसार निम्न वर्ग के सदस्यो की मध्य वर्ग के स्थिति- सम्बन्धी समस्याओ के प्रति प्रतिक्रिया के कारण उत्पन्न हुई समायोजन की समस्या ही अपराध का मुख्य कारण है ।* टैपन/”, जान मार्टन*, किजपैट्रिक आदि ने कोहेन के सिद्धान्त की आलोचना की है | इन लोगों ने तीन मुस्य तर्क दिये हैं.

(!) इस सिद्धान्त की यह मान्यता कि मध्यम और निम्न वर्मो के मुल्य अभिलापाएँ अलग-अलग होती हैं एक गलत घारणा है।

(2) पराजय नैराश्य के कारण यह आवश्यक नहीं है कि लोगों की प्रक्रिया इतनी नकारात्मक हो कि वे अपराधी-व्यवहार को अपनाएँ उनकी क्षति-पुति करने वाला व्यवहार समाज द्वारा मान्यता प्राप्त भी हो सकता है|

(3) कोहेन की यह मान्यता कि व्याप्त प्रवल मुल्यों को अस्वीकार कर जो निम्न वर्ग के अपराधी नये मूल्यों को अपनाकर एक उप-संस्क्ृति समूह बनाते हैं बिना किसी आधार के हैं क्योंकि इस प्रकार की फिर अनेक उप-संस्कृतियाँ हो सकती हैं

बाल्टर रेक्लेस ने भी 96। में कोहेन के सिद्धान्त के विश्लेषण में यह पाया कि उसका सिद्धान्त कुछ अपराधो को समभत्ता है परन्तु सभी को नहीं, अथवा उसका सिद्धान्त कुछ अंज्ो मे सही है | रेक्लेस का विचार है कि यद्यपि अपराधी-व्यवहार और स्थिति-सम्वन्धी तिराशाओ मे पारस्परिक सम्बन्ध है परंतु इतना गहरा नहीं जितना कोड्ेन ने अपने सिद्धान्त मे संकेत किया है ॥*

बाल-अपराध के कारण हे

साधारणतः बाल-अपराध के कारणों का तीन समूहो में विभाजन करके विश्लेषण किया जाता है---जविफीय, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक; परन्तु हम इनका व्यक्तित्व-सम्बन्धी और पर्यावरण-सम्वन्धी कारणों के रूप मे उत्लेख करेगे व्यक्तित्व- सम्बन्धी कारकों मे शारीरिक अयोग्यता, पुराना रोग और शारीरिक वनावट जैसे जैविकीय कारक; और मन्द-बुद्धि, संवेधात्मक व्याकुलता, अनुकरण, भय आदि जैसे मानसिक कारक हम क्षपराध के कारणों वाले अध्याय में बता चुके हैं | यहाँ केवल

मर (जाला, #॥67॥ ६... 00स्‍/क्कटर ढव्व (0ह/गें,. जिएजाएडाणि #ैगवशा 8ए००08५४ 86९५, ए7८॥८९४ प्गा, फडछ 375९9, 966, 65-66.

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३३ुद्छए90, एव ए४., टक्कर, उएड०९ बकफबे (०2८०0, 282.

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3१ ुहठ्पट्टा प्राटा० 5 7टा3ध02 ऐटलजल्ला ठंटातिवृष्टा। ऐटड्शतछत शात एश्रोपट कांव्व'कशांठ्त ऐप फह हशाव005गाए ॥5 छठ ता पीबा वाउ80॥एव6 ३55छ३०४ 99 एटा कवि मिट कप शबाध्यार्या, ३२९८४६५5३, १४गारड उम्सगग्ए कब्र 57लंवा केशल्काती,

> 4963.

बाल-अपराध 79

पर्यावरण-सम्बन्धी कारणों का ही हम विश्लेषण करेंगे। इन कारणों को दो सतह पर देखा जा सकता है--() घर के अन्दर पर्यावरण, तथा (2) घर के बाहर पयविरण घर के अन्दर वातावरण में छिल्न-भिन्न परिवार, अपराधी परिवार, दोप- पूर्ण नियन्त्रण वाले परिवार, का्यात्मक अपर्याप्त परिवार और आधिक रूप से असुरक्षित परिवारों का हम विवरण करेंगे घर के बाहर पर्यावरण में 'हम खराब सम्पर्क, पड़ोस और सिनेमा पर विचार करेंगे।

(।) परिवार--परिवार एक ऐसा स्थान है जहाँ व्यक्ति सामाजिक नियम सीखता है और विभिन्न लक्षणों का विकास करके अपने व्यक्तित्व का विकास करता है। यह विकास एक सामान्यत. संगठित परिवार में ही अधिक सम्भव है। कार (07) ने सामान्य परिवार के ये लक्षण दिये है''---() संरचनात्मक सम्पूर्णता अर्थात्‌ परिवार में माता और पिता दोनों का होता (आ) आशिक सुरक्षा अर्थात्‌ आय में यथार्थ स्थिरता का होना जिससे रहन-सहन का सामान्य स्तर बना रहे ! (३) सांस्कृतिक सरूपता (८प्रा/धा॥! #००१०ाा>) अर्थात्‌ पति-पत्नी दोनों की भाषा रीति- रिवाज का एक होता तथा विचारों का भी समान होना यदि दोनों अलग-अलग सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों वाले व्यक्ति है तो उतकी सन्तान के व्यक्तित्व की सन्तुलित रूप से विकसित होने की सम्भावना हो सकती है। (ई) नैतिक अनुसरण अर्थात माता- पिता दोनों द्वारा समाज के नैतिक नियमों का पालन किया जाना। (3) शारीरिक भौर मानसिक रूप से प्रकृत-अवस्था अर्थात्‌ घर में किसी मानसिक तथा शारीरिक अपूर्णता हीनता को व्यक्ति होना (ऊ) कार्यात्मक पर्याप्तता अर्थाद्‌ पति-पली में माता-पिता और सन्तान मे कोई संघ होना और उनका निर्विध्नता से अपने- अपने कार्य करते रहना।

यद्यपि इन सभी लक्षणों वाले परिवार कम ही मितते है परन्तु इसका यह अये भी नही है कि अन्य सभी परिवार अपराध ही उत्तन्न यरते हैं। असामान्य परिवार व्यक्ति की विभिन्न आवश्णकताओं की पृतति में बाधाएँ उत्पन्न करते है जिससे बह विराश होकर सामाजिक नियमों का उल्लंघन करता है। छः प्रकार के असामान्य

परिवार अपराधी-व्यवहार को अधिक उत्पन्न करते हैं ये है--(क) छिन्न-भिन्न परिवार, (स) अपराधी परियार, (ग) दोपपूर्ण नियन्त्रण वाले परिवार, (घ) कार्यात्मक अपर्याप्त परिवार, (च) आथिक रूप से असुरक्षित परिवार, और (छ) भी ह-भाड़ बाले परिवार

(क) छिन्न-भिन्न परियार-- यह वह परिवार है जिसमे मृत्यु, परित्याग, तलाक या काराबास के कारण माता अथवा पिता परिवार में नहीं होते तथा मात्ता या पिता

फैंग एक से अधिक विवाह होने के कारण उसके दो या अधिक जीवन साथी होते हैं। पहली परिश्यिति के कारण बच्चे को स्नेह नही मिल पाता और दूसरी के कारण उसकी उपेक्षा होती है | व्यक्तित्व के विद्यस के लिए क्योकि माता का प्यार तथा

3930, किक ॥०ज"णी 3, ऐलशदश्टाट ८लवार्ण, तिडप्फुदा 200 705... ]ए८७छ भरा,

80 सामाजिक समसस्‍्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

पिता का नियस्त्रण दोनों ही आवश्यक है इस कारण मात्ता-पिता में से विसी एक का परिवार मे होता बच्चे के सस्तुलित और समाज में समायोजित व्यक्ति होने पर प्रभाव डालता है यह्‌ गलत समाभोजन ही उसके अपराधी-ब्यवहार को प्रेरणा देता है। सदरलैण्ड के अनुमार अमरीका में 30 से 60 प्रतिशत तक वाल-अपराधी इन छिल्न-भिश्न परिवारों के सदस्य पाये जाते है ।! 948 में अमरीका में केलीफोनिया में किये गये चार साल के अध्ययन में मी यह प्राया गया कि उस राज्य में 62 प्रतिशत बाल-अपराधी छिन्न-भिन्न परिवारों के सदस्य थे ।/ होले और ब्रानर ने भी ]924 में अम्तरीका में शिकागों और वोस्टन से किये गये 000 अपराधियों के अध्ययन में 50 प्रतिशत अपराधियों को, श्लेलडन और कब्लूक ने 966 बाल- अपराधियों के अध्ययत मे 48 प्रतिशत अपराधियों को**, हत्स। सेठ ने वम्बई, पुना जओौर अहमदाबाद मे अध्ययत किये गये अपराधियों मे से 47-4 प्रतिशत को, रटनशा ने बम्बई में किये गये 225 अपराधियों मे से 50 प्रतिशत को” ऐसे हो (छिन्न-भिन्न) परिवारों की पृष्ठभूमि वाला पाया इन छिन्न-भिन्न परिवारों के सभी सदस्य अपराधी क्यो नही बनते इसका कारण देते हुए सइरलैण्ड ने कहा है कि अपराध में छिप्न-भिन्न परिवारों का महत्त्व अब इतना अधिक नही माना जाता जितना पहले भाना जाता था ।!* अब परिवार के सदस्यो के आपसी सम्बन्ध तथा किस प्रकार वे सभी परिवार में उत्पन्न हुई घिभिन्न घटनाओं का सामना करते है अपराधी-ध्यवहार मे अधिक महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं ) (ख) अ्रपराधी परिवार--अपराधी परिवार वह है जिसमें एक या अधिक सदस्य, विशेषकर माता या पिता, अपराधी है। उतका अपराधी-्व्यवहार बच्चों के विकास पर कृप्रभाव डालता है अपराधी माता या पिता जान-वूमकर उन्हें अपराध सिखाते है अथवा वच्चे स्वयं अनुकरण द्वारा उससे अपराध सीखते है। ग्लूक ने ]000 बाल-अपराधियों के अध्ययन मे पाया कि 80 प्रतिशत अपराधी ऐसे ही अपराधी परिवारी के सदस्य थे ४? भारत से सासी, कजर, नट आदि अपराधी जन- जातियों के परिवारों में भी ऐसे ही अपराधी पर्यावरण के कारण बच्चे अपराध सीजते हैं। सिरिल बर्ट का भी कहता है कि अपराधी परिवार अनपराधी परिवारों की अपेक्षा सात गुना अधिक अपराध करते हैं ।४ * 3६ 500९7990, ए699, #फ/डटएटड ०7 (/#४02०७३, 765 98 ]व 2765४ छ0प्ा०७५, 3965, )75. ३27 (१७०८४ 69५ ए्ॉठ>लीा, हे०चला। 05., (फांमरांहरण०8७, दि०ाणवर्प ए76553 (०. पब, ४०४४६, 2956, 232, 3३ "जाता, प्रट्वाए 996 छा0पाटा, ह. 7... 0शजिवृटआल दावे एपवाशयिि>-नीशेए क्री 8 दा प्रधाशवईलि९, ३०४ग्रिजा (०० , १, ४००४, 926, ।2[-22. $॥टव00 0 ठएच७८, 076 वहग्क्रक्मर्ध गदार्फॉल िशैएआदुपलांड, विबारब४ाव एफरर्टाइातज ९7९55, ((३॥७708०, 934, 75-77. 33 एजालानी३, ला. हब 59] श्वञॉड90, ०१, ८४., ]77.

37 5तटाॉव0ण 80४ उापल<४, ००. थः., 79-80, 3० (2३ ॥7 छएच्त, 6. ली | 60-93,

चाब-अपराध 8]

(ग) दोषपूर्ण नियन्त्रण वाले परिवार--जिस परिवार मे बच्चों के ऊपर नियन्त्रण में बहुत कठोरता अथवा मृदुता होती है, ऐसा परिवार भी अपराधी उतन्न करता है। अधिक कठोरता के कारण वालक अपनी सभी इच्छाओं को स्वतस्त्रतापूर्वक पूरा नहीं कर पाता जिस कारण उसमे नैराश्य पैदा होता है था फिर माता-पिता का विरोध करने लगता है ! यह विरोध आगे चलकर समाज के प्रति विरोध में परिवर्तित हो जाता है इसी प्रकार अधिक भृदुता के कारण बालक णो भाँगता है वह उसे मित्र जाता है जिससे उसे परिवार के बाहर समाज भे अन्य लोगों से सामना करने की शिक्षा नहीं मिल पाती इस शिक्षा के अभाव में वह अपनी इच्छित वस्तुओं इच्छाओं को प्राप्त करने के लिए बैध और भान्यता प्राप्त तरीके प्रयोग ने करके अवेध अथवा अपराधी तरीके ही अपनाता है लखनऊ में रिफारमेट्री स्कूल में किये गये एक अध्ययन में 07 वाल-अपराधियों में से 57 (53-2 प्रतिशत) के परिवार में कठोरता पायी गयी इन 57 में से 25 अपराधियों के पिता कठोर पाये यये, १2 में साता, 8 में माता पिता दोनों, 4 में भाई, 5 में माता भाई और 3 में पिता भाई कठोर ये किसी भी अपराधी की वहन कठोर स्वभाव वाली नही मिली इसी प्रकार बाल-कारावास, बरेली में अध्ययन किये गये 279 बाल- अपराधियों में से 729 (46-5 प्रतिशत) अपराधियों के परिवारों मे नियन्त्रण में कठोरता पायी गयी ।/? इनमें 88 अपराधियों के पिता कठोर थे, !8 में भाता, 3 में माता पिता और शेष 0 में अन्य सदस्य कठोर थे

(ध) कार्यात्मक श्रपर्माप्त परिवार--यह वह परिवार है जिसके सदस्यों में आपसी संधर्य अधिक मिलते है अथवा उनमे नैराश्य ज्यादा पाया जाता है। नैराश्य माता-पिता द्वारा दुतकारे जाने के कारण अथवा प्रतिद्वन्द्रिता, संवेगात्मक असुरक्षा, कठोर प्रभुत्व, पक्षपात्, ईर्प्या आदि जैसी भावताओं के कारण उत्पन्न होता है। यह पराश्य सदस्यी के व्यक्तित्व को पंगु बना देता हैं कार (027) के दब्दों में कार्यत्मक अपर्याप्त परिवार सांवेगिक रूप से अस्वस्थ परिवार होता है ४" कार्ल सेजर, हीले और ब्रानर, बर्ट, गिलूक आदि द्वारा किये गये अध्ययनों से भी इस प्रकार के परिवारों का अपराध में बहुत महत्त्व मिलता है

(व) क्राथिक रूप से झसुरक्षित परिवार--यहू वह्‌ परिवार है जिसमें आय में यथार्थ स्थिरता नहीं होती अथवा आय अपर्याप्त होती है जिससे सदस्यों की विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा नहीं किया जा सकता निर्घुनता और अपराध के सम्बन्ध में किये गये धोंगर, बर्ट, हीले और ब्रानर, हन्सा सेठ रटनथा आदि के विभिन्न अध्ययनों का उल्लेख पहले ही किया गया है हु (2) सराब सम्पर्क (सेल-समूह्‌ और गिरोह)--वच्चे सभी जगह सेल-समूहों में भाग लेते है और यह आमने-सामने के घनिष्ठ सम्पर्क उद पर बहुत प्रभाव डालते

2 ६5, (२७0 जवह्क, उद्बाटगराह ऐलसयवुएलार) #वींव- मएगा, ०77 68६, 67.

82 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

है। यह उनकी वोलचाल, व्यावहारिक ढंग, उनके अपने और अन्य लोगों के प्रति विचार और धारणाओं, आदर्श आदि को निश्चित करते हैं। एक प्रकार से यह पेल- समूह परिवार से भी अधिक ज्िक्षा देने दाल्ले समूह का कार्य करते है| इसरी ओर गिरोहो की सदस्यता खेल-समुहों की अपेक्षा अधिक स्थिर होती है। इन गिरोहों में निश्चित सगठन भी पाया जाता है। यह बच्चों और युवा लोगों की उन विभिन्न आवश्यकताओं और इच्छाओं की पूरति के लिए उत्पन्न होते है जिनको वे अन्य साधनों द्वारा पूरा नही कर पाते यह गिरोह सदस्यों को उत्तेजना सनसनी, साहस, प्रतिष्ठा, सुरक्षा आदि प्रदान करते हैं। परन्तु सभी खेल-समूह गिरोह अपराध उत्पन्न नहीं करते और ही सभी वालक उनके सदस्य बनते है। रेक्लेस के अनुसार व्याकुल, अधिक फुर्तीलि साहमी और यूथशीलता (ट०847075 गक्षाप्रा०) वाले बच्चे ही इनसे अधिक प्रभावित होते हैं ॥/ इसी तरह जो गिरोह या खेल-समूह अच्छी तरह सग्रठित है वे समाज के लिए लाभदायक ही होते है, परन्तु जो असगठित, प्रमत्त उपेक्षित होते है वे ही समाज से संघर्ष मे आने के कारण समाज-विरोधी कार्य करते है ) सपर्ष-समूह झोठे के कारण ये गिरोह अपने नियम आदि स्वयं ही बनाते है जो सदस्यों के अपराधी कार्यो को भी नियन्त्रित करते हैं। वर्ट, क्लिफोर्ड शा, हीले आदि के अनुसार ऐसे गिरोह और सेल-समूह “अपराधी क्षेत्रो' में अधिक पाये जाते हैं ।*

(3) पड़ोस---गाँवो की अपेक्षा यद्यपि शहरों में पड़ोस का एक नियन्त्रण वाले समूह के रूप में महत्त्व कम होता जा रहा है फिर भी व्यक्ति पर, विशेषकर बच्ची के विकास में, इसका अब भी अधिक महत्त्व है। बातक यही पर खेलता है और यही पर नयी-तथी बात भी 'सीखता है। काल्डबैल के थनुसार पडोस अपराधी व्यवहार की इस प्रकार उत्पन्न करता है कि वह व्यक्तित की भूल आवश्यकताओ में बाधाएँ डालता है, सांस्कृतिक संघर्ष पैदा करता है तथा समाज-विरोधी मूल्यों का पोषण करता है ।* अधिक भीड-भाड वाया पडोस, जहाँ मनोरंजन अपर्याप्त होता है, बच्चों की स्वाभाविक सेल-प्रवृत्ति में बाधा उत्तन्न करता है और कभी-कभी अपराधी गिरोह को भी रघना करता है। पड़ोस में सस्ते होटल, जुआ खेलने के अड्डे, वेश्यागह, सिनेमा आदि के होने के कारण भी समाज-विरोधी कारक पदा होते है

(4) सिनेमा झौर दामुक उपस्यास--व्यक्ति के अवकाश सम्बन्धी कार्य भी उसके विचारों और व्यवहार पर प्रभाव डालते है। अच्छी तरह नियौजित गौर निरीक्षित मनोरंजन च्यक्तित्व के विकास में एक मुम्य तत्त्व है। अखबार, अच्छी पर्चिकाएँ और पुस्तक व्यक्ति के विचारों और दृष्टिकोण को विकसित करते है परन्ठ कामुक उपन्यास, सिनेमा आदि उसमें अनैतिक तथा अवैध भावनाझो को उत्पन्न करते

जग रशाल एत्ततटछ, चार एफ ण॑छचा।वपटता टीशिंए झल्लक्संगए, मक्तव००६ ०/ :४८ह०वां डफडछ0॥/9ा5 ..ै, ०7, ८7, 30

3 (५ ऐप, ०9. ८7... ॥25 ; हउच्न क्षात कॉल, उतलंदां 22006 मि जहिएलशाल शलाएदुब्टवट>, 79-99, शाबच्य>, उल़र रववीकरबबम, 2 शोरकृवशा। ड0077

95, 430. 3२ (308५८), ७#, €। , 240.

वाल-अपराध , _ 83

हैं। सिनेमा व्यक्तियों में अनेक उत्तेजनाएँ और कुविचार पैदा करते हैं जिनसे उनके, अपराधी व्यवहार को प्रोत्साहन मिलता है। ब्लूमर ने अमरीका में अपराधियों के एक अध्ययन में यह पाया कि अध्ययन किये गये अपराधियों में से 20 प्रतिशत पुरुष और 25 प्रतिशत महिला अपराधियों ने सिनेमा के वुष्रभाव के कारंण ही अपराध - किया था। उसका कहना है कि चलचित्र खतरा सोल लेने के गुण को विकसित करते है, दिवा स्वप्न पैदा करते हैं, आसानी से रुपया फमाने की इच्छा को प्रोत्साहित करते हैं, कामुक इच्छाएँ भड़काते हैं तथा अपराधित्व की शिक्षा देते है ।४ न्यूक्रोम्व का विचार है कि चलचित्र व्यक्तियों को जीवन का क्षणिक दर्शन प्रदान करते है अपराध करने के तरीके सिखाते हैं क्योंकि बच्चे अभिनेताओ की भापा आचरण का अनुसरण करते है ।* सदरर्ण्ड ने भी चलचित्रों के कुप्रभाव पर वल दिया है। उसका कहना है कि बहुत से वालक सिनेमा देखने से चोरी राहजनी सीखते है, गिरीह बनाते है तथा सिनेमाओं में दिसाये मये अपराध करने के तरीकों को अपनाते है ।* कुछ वर्ष पहले भारत में भी एक अपराधी ते सिनेमा देखने के वाद एक म्यूजियम में धुसने और एक लाख के मूल्य की वस्तुएँ चुराने भे वह तरीका अपनाया जो कुछ घण्टे पूर्व उसने पिक्चर में देखा था। इसी प्रकार 'पिकपाकेट', आवारा” आदि पिक्चर देखने के बाद घर से भागे हुए युवकों द्वारा अपराध करने पर उनका पकड़ा जाना भी सिद्ध करता है कि सिनेमा का युवकों के मन पर कितना घनिष्ठ प्रभाव पड़ता है और किस तरह यह अपराधी मनोवृत्तियाँ उत्पन्न करते है| परन्तु हमें यह्‌ अवश्य ध्याव में रखना चाहिए. कि चलचित्रों का क्रुप्रभाव कमजोर जन्यायपूर्ण पृष्ठभुमि वाले वच्चो पर ही अधिक पड़ता है। न्यूकोम्ब मे भी कहा है कि चलचित्रों का प्रभाव व्यक्तियों की सामाजिक, धामिक सास्क्ृतिक पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है आवारागर्दी--आवारा वालक उस सात वर्ष से सोलह या अद्ठारह वर्ष की

आयु तक के बालक को कहा जाता है जो मावा-परिता की आज्ञा बिता धर से

4 [70780 पाल ता5छ4५ क्रांग्रा8 ्गरपुप्ट५ बाते साधनों >बटाहड 0 एशाउशे०० 0) दा00आंएड 8०४९5 ॥07 <85/ गा092५ था एज्चा> 2५6 9५ 508765/व8 चरषड$000496 ाध०05 007 पधए ब्रेक्कांटएट्कला, 99 4760९08 8 जात? ण॑ छा्रर३60, (00टवी02८55 70 30एप्राधाए०॥ए५55, 0५ 8ए०पञ्माा8 |॥/€॥55 इज 6८७०5, 9) 43५0९- 08 03/-त7९ककग08 8० 07ग्रया ए065, फटा गराउ/ साटबाट बधएक्‍25 200 विगत ९सागवुए65 ए0०00फ9८४९ ६0. एल॥वएडफ 0 सांगाएश ऐलशीइ्शणाए,! प[एयठ्0, पिशफल: चाव बढ, शिवा 'चै,, 07"7०5, 0लकदूबलाट्र- बगबें (77४० ७००)॥॥०० (00., 933, 498-99,

# 80५63, एा०शंत2 एट०फोट कद ।९फणाबा> एच050फा6३$ ॥6 बाएं छांगि उि5णा5 व) 07९55 पोहए एव) दाउाला ४०5 0 0४९-03पाड गाते एड।वां। >धााावबी ॥स्एपवपठऊ,.. एस्‍हेटाथा. वराफृशाइणाबाह 4005. गे पहला वैशाइप्बट6 शा 0णाठफट- कट+९००००, प॥००४०7९ | , 30टाव! 2:3८2०27 7940७, ९२८ए७ ४०४, 4950, 97

3 उत्ोशोयाते, ०7. ८४. , 2!5. मे उस (०77, ०7. 28 94

84 सामाजिक समस्याएँ और सामाजिक परिवर्तन

अनुपस्थित रहता है तथा आवारागर्दी (५३४7४7०४) करता फिरता है। इसमे व्यक्तित्व के विधटन सम्बन्धी लक्षण भी दिखाई देते है। उदाहरणार्थ, अभिष्टता, ढिठाई, असत्यता, यौन अनैतिकताओं मे फेंसे रहता, जुआ खेलना, सिगरेट शराब पीने की आदत, अनैतिक व्यक्तियों के साथ उठता-बैठना, अश्लील भाषा का प्रयोग करना, इत्यादि इन आवारा बालको को मुख्यतः दो समूहो में विभाजित किया जा सकता है--एक वे जो फुट्पाथ पर रहते हैं और दूसरे वे जो दित को तो सड़को पर अकारण ही चक्कर लगाते फिरते है परन्तु रात्रि को अपने ही घर पर सोते है कुछ अध्ययनों के आधार पर यह पाया गया है कि इनकी आवारागर्दी मे परिवार, पड़ोस स्कूल मुख्य कारक है। लखनऊ और कानपुर में एक सर्वेक्षण में अध्ययन किये गये 300 बालकों (आवारा) में से 30:3 प्रतिशत 3-4 वर्ष की आयु के पाये गये, 24'0 प्रतिशत ]-2 बे के, और 20-7 प्रतिशत 5 बपं के; शेप 28:0 प्रतिशत या तो वर्ष से कम थे अथवा 6 वर्ष से अधिक ।* इस आधार पर कहा जा सकता है कि किशोर अवस्था मे बच्चों में आवारागर्दी अधिक मिलती है। इनके परिवारों के अध्ययन में पाया ग्रया कि 57-3 प्रतिशत बच्चे सामान्य परिवारों के सदस्य थे और 42-7 प्रतिशत विच्छिन्न परिवारों के, जिससे यह ज्ञात होता है कि सामान्य परिवारों में माता-पिता का नियन्त्रण अथवा साता-पिता के आपसी सम्बन्ध आवारागर्दी के प्रमुख कारक है गिरफ्तार करने के उपरान्त आवारा बच्चों को या तो बाल-जेलो में भेजा जाता है अथवा किसी मान्यता प्राप्त स्कूल सुधारालय भादि में बिना झाज्ञा स्कूल से भ्रनुपस्यित होने वाले बंच्चे--वाल ट्र,एन्ट (7एथ॥) घह 7 और 6 वर्ष के धीच की आयु का बालक है जो विना किसी उचित, सभ्य समर्थनीय कारण के स्कूल से अनुपस्थित रहता है ये वालक हमेशा वे नही होते जो परीक्षा में अनुरत्तीण ही होते रहते हैं, परन्तु वे भी होते है जिनको शैक्षणिक दृष्टिकोण से अच्छा विद्यार्थी कहा जा सकता है। इसी प्रकार स्कूल से भागने पर सभी बच्चे अन्य दर, एन्टसू के सम्पर्क में नहो पाये जाते कुछ तो अकेते ही धूमते-फिरते हैं भौर बुछ के मित्र सामान्य अनपराधी होते हैं। अधिकतर बच्चों के लिए स्वृल से भागने का कारण अध्यापक का व्यवहार तथा स्वूल का बातावरण द्ोता है अध्यापक का निष्ठुर शासक च॒ तीम्र स्वभाव वा होना, उसके द्वारा अश्लील भाषा का प्रयोग करना, अच्छा में पढ़ाना आदि बच्चे को स्कूल से भागने पर विवश करता है। कानपुर येः 485 ट्र,एन्टसू के एक अध्ययन के आधार पर उनको तीन समूद्रों में बाँटा गया है?--() सामयिक, (2) अभ्यस्त और (3) बार-बार भागने वाले बछ्चे बिना आज्ञा स्कूल से अनुपस्थित रहने वाले सामथिक बच्चे वे बताये गये हैँ जो एक वर्ष के कार्यकाल के कुल कार्य-दिनों में से 0 प्रतिशत से कम दिन तक रकूल

57४2१453., 5 5, धणए्ठाटव ऋ४ 505] (कहा, 5न्दंगेग्एर गा स्‍कस्‍वक्ांगि 4८७ एएक99६१3., ॥0॥939, 967, 4. ६. *१ कन्‍पजपत३, 77, 3 49०05 99 $5550॥ (फ४56473, ०5. ८8/., 0-4.

बाल-अपराध 85

से अनुपस्थित रहते है। यह वच्चे अधिकतर स्वूल के पर्यावरण अध्यापकों के व्यवहार के कारण ही कक्षाओं से भागते है। साथ में इसकी उल्लास आमोद-प्रमोद तथा साहसिक कार्य करने की भी इच्छा रहती है जो स्वूजल में पूर्ण नही हो पाती ये बच्चे क्योंकि संकेत प्रलोभन से शीघ्र प्रभावित होते हैं इस कारण इनका सही प्रबन्ध कर इनको सुधारना बहुत आसान है। अभ्यस्त ट्रू एन्टस वे बच्चे बताये गये हैं जो कुल कार्य-दिनों में से 70 और 30 प्रतिशत के वीच कक्षाओं से अनुपस्थित रहते हैं ! यह बच्चे केवल अइलील भाषा का प्रयोग करते है अपितु सामान्य ट्रें एन्टसू पर भी बहुत प्रभाव डालते हैं तीसरे प्रकार के बार-बार अनुपस्थित रहने वाले बच्चे वे बताये गये है जी 30 प्रतिशत से अधिक कार्य-दितों के लिए कक्षाओं से अनुपस्थित रहते हैं। ये केवज स्कूल से भागते है अपितु इन्हे घर से भी भागने की आदत होती है। इनको अध्यापकों के प्रति कोई आदर श्रद्धा नही होती तथा दण्ड मिलने पर बदला लेने की इच्छा भी रखते है| ये उत्तेजित और आक्रमणकारी होते है तथा इनमें नेतृत्व के लक्षण भी पाये जाते है

सन्ना द्वारा अध्ययन किये गये स्कूल से विना आज्ञा अनुपस्थित रहने वाले 485 बच्चों में से 35"! प्रतिशत सामग्रिक, 40 प्रतिग्मत अभ्यस्त और 23 प्रतिशत वार-बार अनुपस्थित रहने वाले ट्रं.एन्टस्‌ पाये गये ।४? इन तीनी प्रकार के बच्चों के प्रमुख लक्षण इस प्रकार थे--() अधिकतर ट्र,एन्टस्‌ 70 और 73 वर्ष के बीच के अयवा कम आयु के थे (2) अधिकाश 90 प्रतिशत बच्चे 50 रुपये प्रति भाह से कम आय वाले